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[७७ क्रियाओं के विषय में भी समझ लेना चाहिए। ज्ञानी और अज्ञानी का अन्तर दिखलाते हुए कहा गया है- ..
. . जं अण्णाणो कम्म, खवेइ बहुवास कोडीहि ।
तं पाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसास मेत्तणं ॥ - अज्ञानी जीव करोड़ों जन्मों में जितने कर्म खपाता है, ज्ञानीजन तीन .. गुप्तियोंसे गुप्त होकर एक उच्छवास जितने अल्प समय में ही उतने कर्मों का क्षय
कर डालता है ! कहां करोड़ों जन्म और कहां एक उच्छवास जितना समय ! इस अन्तर का कारण अन्तरंग में विद्यमान ज्ञान का आलोक ही है।
. ज्ञानी पुरुष के संचार पर कोई प्रतिवन्ध नहीं लगाया गया है। वह जहां चाहे विचरण कर सकता है . और जितनी भी दूर जाना चाहे, - जा सकता है । गंगा का पानी फैलकर सुखद वातावरण का निर्माण करता है। क्षारयुक्त, विषाक्त और गटर के गंदे जल पर नियंत्रण की आवश्यकता है। अज्ञानी के साथ विषय, कषाय और बंध का विष फैलता है, जिससे उसकी आत्मा तो मलीन होती ही है, पर समाज का वातावरण भी कलुषित बनता है। फोड़े के बढ़ने से हानि की आशंका की जाती है, स्वस्थ अंग के बढ़ने में कोई खतरा नहीं, वह स्वस्थता का चिन्ह माना जाता है।
. गृहस्थ के जीवन में हिंसा और परिग्रहण का विष घुला रहता है। उसके विस्तार से विष वृद्धि की संभावना रहती है, अतएव उस पर नियंत्रण की आवश्यकता है। यही कारण है कि उसके गमनागमन पर प्रतिबंध लगाया गया है और उसे सीमित करने का विधान किया गया है। साधु के लिऐ ऐसा कोई प्रतिवन्ध नहीं है। उसका क्षेत्र सीमित नहीं किया गया, बल्कि उसे एक .. स्थान पर न रहकर भ्रमण करते रहने का विधान किया गया है। उसे एक जगह नहीं टिकना है, क्योंकि वह 'अनगार' है और उसे भ्रमण ही करते रहना है, क्योंकि उसे भ्रमर (भ्रमणशील) की उपमा दी गई है । कहा है
बहता पानी निर्मला, पड़ा गंदीला होय । ... ... ...साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय ॥ .. ..