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विदाई की वेला में
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. भगवान महावीर ने जीवन को उच्च बनाने और आत्मा को निर्मल बनाने - के लिए रत्नत्रयी का संदेश दिया है, जिसमें (१) सम्यग्ज्ञान (२) सम्यग्दर्शन और -- (३) सम्यक् चारित्र का समावेश होता है ! साधु साध्वीवर्ग इन तीन रत्नों की . . उपासना को ही अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य मान कर प्रवृति करता है।
श्रावक-श्राविकाओं को भी यथा शक्ति इनकी आराधना करनी होती है। इनकी ..... । यथा संभव आराधना से ही श्रावक-श्राविका का पद प्राप्त होता है। .
अपनी श्रेयः साधना के लिए ही साधु-साध्वीवर्ग निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं-एक स्थान पर स्थिर रह कर निवास नहीं करते। यदि साधु-साध्वी - एक स्थान में रहें तो उनका जीवन गतिशील नहीं रह जाएगा । स त एक . .
विशिष्ट लक्ष्य को लेकर चलते हैं। उनका लक्ष्य विराग से ही प्राप्त किया जा सकता है। न किसी पर राग, न किसी पर द्वष हो । समभाव या तटस्थ वृत्ति का जीवन में जितना अधिक विकास होगा, उतनी ही शान्ति और निराकुलता की प्राप्ति हो सकेगी। मनुष्य दुःख, शोक, सन्ताप आदि से ग्रस्त रहता है, इसका मूल कारण उसकी राग-द्वेषमय वृत्ति है। इससे पिण्ड छुड़ाना सुख शान्ति और प्रात्मकल्याण के लिए आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य भी है।
एक स्थान में स्थिर रहने से स्नेह सम्बन्ध अासक्ति के रूप में बदल जाय,.. इस संभावना को ध्यान में रखते हुए भगवान् ने सन्त:सतियों के लिए विचरण करने का विधान किया है । प्रभु ने कहा-हे साधको ! भ्रमण करने से शारीरिक श्रम होगा, काययोग का हलन-चलन होगा और धर्म की वृद्धि भी होगी। यदि