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- केशी का वेष अलग प्रकार का था, गौतम का अलग तरह का। , प्रश्न खड़ा हुआ-दोनों का उद्देश्य एक है, मार्ग: भी एक है, फिर ... - यह भिन्नता क्यों है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए दोनों महामुनि परस्पर मिले। दोनों में वार्तालाप हुश्रा। उसी समय गौतमस्वामी ने स्पष्टीकरण किया-लिंग अर्थात् वेष को देखकर अन्यथा सोच-विचार नहीं करना चाहिये । द्रव्यलिंग का प्रयोजन लौकिक है। वह पहचान की सरलता के लिये है। कदाचित् द्रव्यलिंग अन्य का हो किन्तु भावलिंग अर्हदुपदिष्ट हो तो भी साधक मुक्ति प्राप्त कर सकता है.। . . .. .. ....... .....: । देव, गुरु और धर्म का स्वरूप बतलाते हुए कहा है-:..."
। सो धम्मो जत्थ दया, दसट्टदोसा न जस्स सो देवो। -::--सो हु गुरूं जो ताणी प्रारम्भ परिग्गहा विरो.।।
अर्थात्-जहां दया है वहां धर्म है। जिसमें दया का विधान नहीं है, वह पन्थ, सम्प्रदाय या मार्ग धर्म कहलाने योग्य नहीं । कबीरदास भी कहते हैं ..
- जहां दया तहं धर्म है। जहां लोभ तहँ पाप । . जहां क्रोध तहं पाप है, जहां छिमा तहं आप ।।
आराध्य देव का क्या स्वरुप है ? इसका उत्तर यह है. कि जिसमें अठारह दोष न हों वह देव पदवी का अधिकारी है। अठारह दोष इस प्रकार है- (१) मिथ्यात्व (२) अज्ञान (३) मद (४) क्रोध (५) माया (६) लोभ
(७) रति (८) अरति (8) निद्रा (१०) शोक (११) असत्य भाषण. (१२) चौर्य -: (१३) मत्सर (१४) भयः (१५) हिंसा (१६) प्रम (१७) क्रीड़ा और (१८) हास्य।....
इन दोषों का अभाव हो जाने से यात्मिक गुणों का आविर्भाव हो जाता है। अतएवं जिस अात्मा में पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वीतरागता प्रकट हो गए हों, उसे ही देव कहते हैं। आदिनाथ, महावीर, राम, महापद्म आदि नाम कुछ भी.. हो, उनके गुणों में अन्तर नहीं होता । नाम तो संकेत के रूप में है। असल में तो