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..... प्राराध्य देव और अपने गुरु के. प्रति अनन्य श्रद्धा होनी चाहिये । यदि श्राराध्य देव के प्रति श्रद्धा न हुई तो वह पापों का त्याग नहीं कर सकेगा। अलबत्ता मनुष्य को अपने निष्पक्ष विवेक से देव और गुरू के वास्तविक स्वरूप : को समझ लेना चाहिये और निश्चय कर लेना चाहिये। तत्पश्चात् अपने . आध्यात्मिक जीवन की नौका उनके हाथों में सौंप देना चाहिये । ऐसा किये बिना
कम से कम प्रारम्भिक दशा में तो काम नहीं चल सकता। गुरू मार्ग प्रदर्शक - . . है। जिसने मुक्ति के मार्ग को जान लिया है, जो उसे मार्ग पर चल चुका है, ...उस. मार्ग में कठिनाइयों से परिचित है, उसकी सहायता लेकर चलनेवाला
. नवीन साधक सरलता से अपनी यात्रा में आगे बढ़ सकता है । वह अनेक प्रकार ... की वाधाओं से बच सकता है और सही मार्ग पर चल कर अपनी मंजिल तक . . पहँच सकता है। ..
. .. ... .. ... . . . प्रानन्द अत्यन्त भाग्यवान् था। उसे साक्षात् भगवान ही गुरु के रूप में : प्राप्त हुए थे। वह कहता है-मैंने समझ लिया है कि देव कौन हैं ? जिन्हें परिपूर्ण ज्ञान और वीतरागता प्राप्त है, जो समस्त आन्तरिक विकारों से मुक्त हो चुके हैं, जो अपने निर्मल स्वरूप को प्राप्त कर परम-ब्रह्म परमात्मा बन गए हैं, वे... ही मेरे लिए प्राराध्य हैं। ...
:: पतिव्रता नारी जिसे वरण कर लेती है, आजीवन; उसके प्रति पूर्ण निष्ठा रखती है। वह अन्य पुरुष की कामना नहीं कर सकती है। वह अन्य पुरुष की कामना नहीं कर सकती:। पति के प्रति निष्ठा न रखने वाली नारी
कुशीला कहलाती है। साधक भी परीक्षा करने के पश्चात् सर्वज्ञ एवं वीतराग . .... देव को अपने आराध्य देव के रूप में वरण कर लेता है और फिर उनके प्रति ।
अनन्य निष्ठा रखता है: । उसको निष्ठा इतनी प्रगाढ़ होती है कि देवता और.. ... दानव भी उसे विचलित नहीं कर सकते । .
....... - जो वीतराग मार्ग का आराधक है, जो अनेकान्त दृष्टि का ज्ञाता है और
प्रारम्भ-परिग्रहवान् नहीं है। उसकी श्रद्धा पक्की ही होगी। साधक को सौ टंच. . . के सोने के समान खरा ही रहना चाहिये। .......
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