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रहा जितना 'बांधते' के बदले तुम्हारा 'बाधति' प्रयोग हृदय में दुख ... रहा है। .. ..
...... ..... ......... सिद्धसेन यह उत्तर सुन कर चौक उठे ! उन्होंने सोचा-मेरी भूल मेरे गुरू के सिवाय कौन बतला सकता हैं ! हो न हो,' भारवाहक के रूप में ये मेरे ... : गुरूजी ही हैं ! .
. ............... . . .. सचमुच वे सिद्धसेन के गुरू ही थे। उन्होंने प्रकट होकर उन्हें उपदेश .. दिया-हम साधुओं का यह कर्त्तव्य नहीं है कि पालकी की सवारी करें और. :
विलासमय जीवन व्यतीत करें। जिसे ऐसा जीवन बिताना है. वह साधु का वेष धारण करके साधुता की महिमा को क्यों मलीन करे ? ..
गुरू का उपदेश सुनते ही सिद्धसेन प्रतिबुद्ध हो गए। विद्वान् को इशारा ही पर्याप्त होता है । ज्ञानवान् पुरुष कर्मोदय से. कदाचित गड़बडा जाय तो भी ज्ञान की लगाम रहने से शीघ्र सुधर जाता है। इसी कारण ज्ञान की विशेष महिमा है । सूर्य के प्रखर पालेक में जिसे सन्मार्ग दृष्टिगोचर हो रहा हो, वह कुपथ में जाकर भी लीघ्र लौट आता है, परन्तु अमावस्या की घोर अन्धकारमयी रात्रि में, सुपथ पर पाना चाहकर भी पाना कठिन होता है। यही बात
ज्ञानी और अज्ञानी के विषय में समझनी चाहिए । अज्ञान मनुष्य का सबसे - बड़ा शत्रु है । अज्ञान के कारण मानव अपना शारीरिक और कौटुम्बिक दुःख ..
बढ़ा लेता है । मगर ज्ञान भी वही श्रेयस्कर होता है जो सम्यक् श्रद्धा से युक्त - होता है । वह ज्ञान, जो श्रद्धा का रूप धारण नहीं करता, टिक नहीं सकता।
कदाचित टिका रहे तो भी विशेष उपयोगी नहीं होता। कभी-कभी तो शृद्धा- हीन ज्ञान अज्ञान से भी अधिक अहितकर सिद्ध होता है। इसी दृष्टि से कहा :
जाता है कि कुज्ञान से अज्ञान भला । अज्ञानी अपना ही अहित करता है परन्तु । श्रद्धाहीन कुज्ञानी अपने कुलों के बल से सैंकड़ों, हजारों और लाखों को गलत राह पर लेजा कर उनका अहित कर सकता है। धर्म के नाम पर नाना प्रकार के मिथ्या मतों के जो प्रवर्तक हुए हैं, वे इसी श्रेणी के थे, जिन्होंने प्रज्ञ जनों को कुमार्ग पर प्रेरित किया। अतएव वही ज्ञान कल्याणकारी है जो सम्यक्