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रहें। आप जैसे योगी का समागम पाकर मैं धन्य होगई हैं। आपकी प्रभावपूर्ण वाणी को श्रवण करने से मेरा अज्ञानान्धकार विलीन होगया है। हृदय में पवित्र ज्योति बालेकित हुई है। विश्वास रखिए महात्मन् ! वह अब बुझने नहीं पाएगी । प्रभो ! आप करुणा और ज्ञान के सागर हैं। प्रकाश के पुंज हैं। मेरी हार्दिक कामना है कि जैसे आपकी संगति से मुझ अधम का उद्धार हुअा, उसी प्रकार जगत् के अन्य पतित प्राणियों का भी उद्धार हो । आपने जैसे एक जीवन को पवित्र बनाया है, वैसे ही जन-जन के जीवन को पवित्र बनावें । योगिन् ! आप गंगा के निर्मल जल के समान हैं। जन-जन के जीवन के लिए वरदान हैं।
ल्पाकोशा के हृदय में मुनि के प्रति अगाध सात्विक अनुराग और वित्र श्रद्धाभाव है । भौतिक देह के प्रति संयोग-वियोग की भावना नहीं है। वह संकल्प करती है कि मुनि महाराज भले ही चले जाएं परन्तु उनका उपदेश, उ के द्वारा विखेरा हुआ पावन पालोक, मेरे हृदय में नहीं जाएगा । उसे मैं अपने जीवन के उत्थान का मूलमन्त्र बना कर सुरक्षित रक्रगी।
संसार के जीवों की परिणति बढी विचित्र है। सबसे बड़ी विचित्रता तो यही है कि आत्मा स्वयं अनन्त ज्ञान-दर्शन और असीम सुख का निधान होकर भी अपने स्वरूप को भूल कर रंक बना हुआ है । जब वह अपने वास्तविक रूप को समझ कर उसमें रमण करने लगता है तो संसार के उत्तम से उत्तम पदार्थ भी उसे आनन्ददायक प्रतीत नहीं होते। उसे सारा विश्व एक निस्सार नाटक के समान भासित होने लगता है । रूपाकोशा की अब यही मनोदशा थी । उसे धर्म-चिन्तामणि पाकर किसी भी वस्तु की कामना नहीं रह गई थी।
इस प्रकार रूपाकोशा मुनि को विदा देती है और अपने जीवन को विशुद्ध बनाने का आश्वासन देती है । मुनि चातुर्मास्य समाप्त कर गुरु के निकट लोट रहे हैं।
. जैसे महामुनीश्वर स्थूलभद्र विकार, विलास एवं वासना के विषैले