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- कृमिणाल शताकीर्णे, जर्जरे देहपज्जरे।
भिमसाने न भेतव्यं, यत्तस्त्वं ज्ञान विग्रहः।। हे पात्मन् ! सैकड़ों कीड़ों से व्याप्त और जर्जर यह देह रूपी पीजरा : अगर भेद को प्राप्त होता है तो होने है। इसमें भयभीत होने की क्या बात है। जैसे पक्षी के लिए पीजरा होता है वैसे ही तेरे लिए यह देह है। यह तेरी प्रतमी देह नहीं है। तेरी असती देह तो बेतना है जो तुझसे कदापि पृथक नहीं हो सकती।
ज्ञानी ननं मृत्यु को मित्र मानकर उससे मेंटने के लिए सदा उद्या रहते हैं। मृत्यु उनके लिए निपाद का कारण नहीं होती। वे समझते हैं कि भी जीना भर यो पुख्य-मर्म क्रिमा है, उसका फल तो मृत्यु के माध्यम से ही प्राप्त होमा है। तो फिर मृत्यु ले भयभीत क्यों होना चाहिए ? शरीर के. कारागार से मुक्त करने भाली मृत्यु भयावह कैसे हो सकती है ? : ..मगर अज्ञानी और अभी जन मुत्यु की कल्पना से सिहर उठते हैं। दे
समझते हैं कि वर्तमान जीवन में किये हुए पापों का दृष्फल अव भुगतना पड़ेगा। .... तो मत्यु को श्रीर उसके पश्चात् के जीवन को सुन्दर और सुखद बनाने
के लिए यह आवश्यक है कि इस जीवन को उज्ज्वल और पवित्र बनाया माय; जामन में पाप का स्वर्शन होले रिया जाय । जिसने इस प्रकार की सावधानी सली उसके लिए मूत्र मंगल है, महोत्सव है, शिव है, सुन्दर है और सुखद है। भगवान ले सामन्ब को मृत्यु के दो मैद वनमार्थ -
पसाय ... .. . ... (१) पश्चिम मरण . (९) अपश्चिमरया -: ... ...... बालमरण . . . पण्डित लरय . , ... - : .... असमाभिमरण
समाधिमरणा. अबम प्रकार को मरण के लिए फला की आवश्यकता नहीं। रेल की परी पर सो जाना, मिषपाम कर लेना, फांसी लगा लेना या कुंए में प्रद जाना