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झोंक दीं और दूसरी सामग्री नष्ट भ्रष्ट कर दी । उसने बच्चों को सीख दी -
शिक्षक इधर श्रावे तो लकड़ी से उसकी पूजा करना। हमारे यहां किस चीज की कमी है जो पोथियों के साथ मथापच्ची की जाय ? कोई श्रावश्यकता नहीं है:
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पढ़ने-लिखने की ।
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अनेक श्रीमन्तों के यहां ऐसा ही होता है। पिता सन्तान को पढ़ाना चाहता है तो मां रोक देती है। मां पढ़ाना चाहती है तो रुकावट डालता है । मैथिलीशरण ने ठीक लिखा है
श्रीमान् शिक्षा दें उन्हें तो श्रीमती कहती नहीं, घेरो न लल्ला को हमारे नौकरी करनी नहीं ।
शिक्षे ! तुम्हारा नाश हो तू नौकरी के हित वनी, लो मूर्खते ! जीती रहो रक्षक तुम्हारे है धनी ।
कई अज्ञान ज्ञानाराधना का विरोध एवं उपहास करते हुए कहते हैं- 'जो पढ़तव्यं सो. मरतव्यं, ना पढ़तव्यं सो मरतव्यं, दांत कटकट कि कर्त्तव्य, यों मरतव्यं त्यों मरतव्यां' कोई कहते हैं
भरिया घोड़े चढ़े, भरिया मांगे भीख
अपढ़ लोगों ने राज्यों की स्थापना की है ! पढ़ाई-लिखाई में क्या धरा है, होता वही है जो कपाल में लिखा है । इस प्रकार इतिहास, तर्क और दर्शन शास्त्र तक का सहारा लिया जाता है मूर्खता के समर्थन के लिए ।
भारतवर्ष में अज्ञानवादी अत्यन्त प्राचीनकाल में भी थे । वे प्रज्ञान को ही कल्याणकारी मानते थे और ज्ञान को अनर्थों का मूल ! उनके मत से प्रज्ञान ही मुक्ति का मूल था । श्राज व्यवस्थित रूप में यह श्रज्ञानवादी सम्प्रदाय भले ही न हो, तथापि उसके बिखरे हुए विचार आज भी कई लोगों के दिमाग में घर किये हुये हैं । प्रज्ञानवाद का प्रभाव किसी न किसी रूप में प्राज भी मौजूद है । मगर अज्ञानवादियों को सोचना चाहिए कि वे प्रज्ञान की श्र ेष्ठता की स्थापना