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आज इस विषय में अनेक प्रकार के भ्रम फैले हैं और फैलाये जाँ रहे हैं । एक भ्रम यह है कि काम वासना अजेय है; लाख प्रयत्न करने पर भी उसे जीता नहीं जा सकता । ऐसा कहने वाले लोगों को संयम-साधना का अनुभव नहीं है । जो विषय भोग के कीड़े बने हुए हैं, वे ही इस प्रकार की बातें कह कर जनता को अधः पतन की ओर ले जाने का प्रयत्न करते हैं । 'स्वयं नष्टः परान्नाशयति'-जो स्वयं नष्ट है वह दूसरों को भी नष्ट करने की कोशिश करता है । ऐसे लोग स्थूलभद्र जैसे महापुरुषों के आदर्श को नहीं जानते हैं, न जानना ही चाहते हैं। वे अपनी दुर्वलता को छिपाने का जघन्य प्रयास करते हैं । वास्तविकता यह है कि ब्रह्मचर्य आत्मा का स्वभाव है और मैथुन विभाव है। स्वभाव में प्रवृत्ति करना न अस्वाभाविक है और न असंभव ही। भारतीय संस्कृति के अग्रदूतों ने, चाहे वे किसी धर्म सम्प्रदाय के अनुयायी हों, ब्रह्मचर्य को साधना का अनिवार्य अंग माना है।
यह सन्य है कि प्रत्येक मनुष्य सहसा पूर्ण ब्रह्मचर्य का परिपालन नहीं कर सकता. तथापि ब्रह्मचर्य की ओर अग्रसर तो हो ही सकता है । मुनि के लिए शास्त्रों में पूर्ण ब्रह्मचर्य का अनिवार्य विधान है और गृहस्थ के लिए स्थूल मैथुन त्याग का विधान किया गया है । सद्गृहस्थ वही कहलाता है जो पर स्त्रियों के प्रति माता और भगिनी की भावना रखता है । जो पूर्ण ब्रह्मचर्य के अादर्श तक नहीं पहुँच सकते, उन्हें भी देशतः ब्रह्मचर्य का तो पालन करना ही चाहिए। परस्त्रीगमन का त्याग करने के साथ-साथ जो स्वपत्नी के साथ भी मर्यादित रहता है, वह विशेष रूप से ब्रह्मचर्य का पालन करके प्रोजस्वी और तेजस्वी बनने के साथ संयम का पालन करता है । सद्गृहस्थ को ज्ञानीजन चेतावनी देते हैं कि स्थूल मैथुन का भी त्याग नहीं करोगे तो स्थूल हानि होगी। सूक्ष और प्रांतरिक हानि का भले ही हर एक को पता न लगे पर स्थूल अब्रह्म के सेवन से जो स्थूल हानियां होती हैं, उन्हें तो सारी दुनिया जानती है । जिसने अपनी इन्द्रियों पर नियन्त्रण कर लिया है, जिसका मनोवल प्रबल है और जो अपना इह पर लोक सुधारना चाहता है, वही ब्रह्मचर्य का पालन करता है । इसके विपरीत दुर्वलहृदय जन अहिंसा आदि व्रतों का भी पालन नहीं कर