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मैं निरत मुनि के लिए तो यावज्जीवन पूर्ण साधना ही रहती है । उनका जीवन सर्वविरति साधना में लगा रहता है ।
मुनि आराधना के तीन वर्ग बना लेते हैं - ( १ ) ज्ञान (२) दर्शन और (३) चारित्र । वे इन तीनों की साधना में अपनी समग्र शक्ति लगा देते हैं. विराधना से उनके मन में हलचल पैदा हो जाती है ।.
आचार्य भद्रबाहु स्वयं ज्ञान और चारित्र की प्राराधना कर रहे हैं तथा दूसरे ग्राराधकों का पथ-प्रदर्शन भी कर रहे हैं। मुनि स्थूलभद्र प्रधान रूप से श्रुत की आराधना में संलग्न हैं ।
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पहले बतलाया जा चुका है कि आचार्य भद्रबाहु से श्रुत का अभ्यास करने के लिए कई साधु नेपाल तक गए थे, परन्तु एक स्थूलभद्र के सिवाय सभी लौट आए थे । जितेन्द्रिय स्थूलभद्र विघ्नबाधाओं को सहन करते हुए डटे रहे उनके मनमें निर्बलता नहीं आई । उत्साह उनका भग्न नहीं हुआ वे धैर्य रख कर अभ्यास करते रहें ।
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किन्तु मन बड़ा दगाबाज है । इसे कितना ही थाम कर रक्खा जाय, कभी न कभी उच्छृंखल हो उठता है । इसी कारण साधकों को सावधान किया गया है कि मन पर सदैव श्रंकुश रक्खो । इसे क्षणभर भी छुट्टी मत दो | जरा-सी असावधानी हुई कि चपल मन अवांच्छित दिशा में भाग खड़ा होता है । मन बड़ा घृष्ट एवं साहसी है । वह बड़ी कठिनाई से काबू में आता है और सदैव सावधान रहे बिना काबू में रहता नहीं है ।
स्थूलभद्र का जो मन रूपकोषा के रंगमहल में हिमालय के समान अविचलित रहा और नेपाल तक जाकर विशिष्ट श्रुत के अभ्यास आदि की
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कठिनाइयों में भी दुर्बल न बना, वही मन लोकैषणा के मोह में पड़ कर मलीन हो गया । सातों साध्वियों के पहुँचने पर एक घटना घटित हो गई । स्थूलभद्र अपनी अपूर्ण सिद्धि को पचा न सके। वे गिरि-गुफा के द्वार पर सिंह का रूप धारण करके बैठ गए ।