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और सुसम्बद्ध प्राचार योजना की है। इसके अनुसार जीवन यापन करने . . वाला मनुष्य अपने जीवन को पूर्ण रूप से सुखमय. शान्तिमय और फलमय ... बना सकता है और उसके किसी भी लौकिक कार्य में व्याघात नहीं होता। ... ..... प्राचार का मूल विवेक है । चाहे कोई श्रमण हो अथवा श्रमणोपासक, . . उसकी प्रत्येक क्रिया विवेकयुत होनी चाहिए जो विवेक का प्रदीप सामने रखकर चलेगा, उसे गलत रास्ते पर चल कर या ठोकर खाकर भटकना नहीं पड़ेगा। वह द्रुतगति से चले या मन्दगति से, पर कभी न कभी लक्ष्य तक पहुँच ही जाएगा। ... ... ... 18 ........
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... ....पोषधव्रत की आराधना एक प्रकार का अभ्यास है. जिसे साधक अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने का प्रयत्न करता है । अतएव पोषध :को शारी-.. रिक विश्रान्ति का साधन सहीं समझना चाहिए। निष्क्रिय होकर प्रमाद में समय व्यतीत करना अथवा निरर्थक बातें करना पोषध व्रत का सम्यक् पालन नहीं है । इस व्रत के समय तो प्रतिक्षण आत्मा के प्रति सजगता होनी चाहिए। : . दूसरा कोई देखने वाला हो अथवा न हो, फिर भी व्रत की आराधना आन्तरिक .. श्रद्धा और प्रीति के साथ करना चाहिए। ऐसा किये बिना रसानुभूति नहीं .
होगी । रसानुभूति तो विधिपूर्वक भीतरी लगन के साथ पालन करने से ही ... .. होगी। साधना में अानन्द की अनुभूति होनी चाहिए । जब अानन्द की अनुभूति :. होने लगती है तो मनुष्य साधना करने के लिए बार-बार उत्साहित और उत्कण्ठित होता है। ...... ............................ .. - गृहस्थ आनन्द ने महावीर स्वामी के चरणों में उपस्थित होकर अगी
कार किये व्रतों के अतिक्रमणों को समझ लिया और दृढ़ संकल्प किया कि . . मुझे इन सब से बचना है।
... .. : . यदि पूरी वस्तु प्राप्त न हो सके तो आधी में सन्तोष किया जाता है, किन्तु जिसे पूरी प्राप्त हो वह आधी के लिए क्यों ललचाएगा ? गृहस्थ पर्व... दिवसों में विशिष्ट साधना को अपना कर आनन्द पाता है, किन्तु पूर्ण साधना .