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सोमाइयंमि उ कडे, समरणो इव सावो हवइ जम्हा । - एएण कारणेणं, बहुसो सामाइयं । कुज्जा ॥... ... सामायिक करने की अवस्था में श्रावक भी साधु के समान हो जाता है, -इस कारण श्रावक का कर्तव्य है कि वह बार-बार सामायिक करें। . .... - तात्पर्य यह है कि पात-रौद्र ध्यान का त्याग करके और सावध कार्यों - का त्याग करके एक मुहूर्त पर्यन्त जो समताभाव धारण किया जाता है, वह - सामायिक व्रत कहलाता है । स्पष्ट है कि सामायिक में किसी प्रकार के सावध ... - व्यापार की छूट नहीं है । किन्तु देशावकाशिक व्रत में यह बात नहीं होती।
उसका पालन करने वाला श्रावक मर्यादा के भीतर सावध व्यापार का त्यागी .. नहीं होता।
• सामायिक करना एक प्रकार से साधुत्व का अभ्यास है । अतएव सामायिक का पाराधन करने से आगे की भूमिका तैयार होती है ।
, इन दोनों व्रतों के स्वरूप में किंचित् अन्तर होने पर भी यह नहीं ...... समझना चाहिए कि इनमें किसी प्रकार का साम्य ही नहीं है। आखिर तो दोनों ही व्रत अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार श्रावक के जीवन को संयम की
ओर अग्रसर करने के लिए ही हैं । श्रावक किस प्रकार पूर्ण संयम के निकट पहुँचे, इस उद्द श्य की पूर्ति में दोनों व्रत. सहायक हैं। श्रावक के जो तीन ... : मनोरंथ कहे गए हैं उनमें एक मनोरथ यह भी है कि कब वह सुदिन. उदित...
होगा जब मैं प्रारम्भ-परिग्रह. को त्याग कर अनगार धर्म को अंगीकार करूंगा? इसी मनोरथ को लक्ष्य में रख कर श्रावक को प्रत्येक प्रवृत्ति करनी चाहिए और जिसका लक्ष्य ऐसा उदात्त और पवित्र होगा वह सदा संयम परायण सत्पुरुषों का गुणगान करेगा।
प्रानन्द ने श्रावक व्रत की साधना स्वीकार की और अपने जीवन की कृतार्थता की ओर कुछ और कदम बढ़ाए । श्रावकों के लिए आनन्द का जीवन चरित सदा आदर्श रहेगा।