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नहीं ठहर सकता, उसी प्रकार सम्यग्ज्ञान के उत्पन्न होने पर रागादि नहीं रह सकते।
इस प्रकार का सम्यग्ज्ञान जिसे प्राप्त है, उनका दृष्टि कोण । सामान्य जनों के दृष्टि कोण से कुछ विलक्षण होता है । साधारण जन जहाँ वाह्य दृष्टिकोण रखते हैं, ज्ञानियों की दृष्टि आन्तरिक होती है । हानि-लाभ को आँकने और मापने के मापदण्ड भी उनके अलग होते हैं । साधारण लोग वस्तु का मूल्य स्वार्थ की कसौटी पर परखते हैं, ज्ञानी उसे अन्तरंग दृष्टि से, . अलिप्त भाव से देखते हैं। इसी कारण वे अपने पापको बन्ध के स्थान पर भी निर्जरा का अधिकारी बना लेते हैं । अज्ञानी के लिए जो आस्रव का निमित्त है, ज्ञानी के लिए वही निर्जरा का निमित्त बन जाता है । आचारांग में कहा है
'जे भासवा ते परिसन्या, 'जे परिसव्वा ते प्रासवा,
संसारी प्राणी जहां हानि देखता है, ज्ञानी वहां लाभ अनुभव करता है। इस प्रकार ज्ञान दृष्टि वाले और बाह्य दृष्टि वाले में बहुत अन्तर है । बाह्य दृष्टि वाला वस्तुओं में आसक्ति धारण करके मलीनता प्राप्त करता है, जबकि ज्ञानी निखालिस भाव से वस्तुस्वरूप को जानता है, अतएव मलिनता उसे स्पर्श नहीं कर पाती। बहुत बार ज्ञानी और अज्ञानी की बाह्य चेष्टा एक- सी प्रतीत होती है, मगर उनके आन्तरिक परिणामों में आकाश-पाताल जितना अन्तर होता है। ज्ञानी जिस लोकोत्तर कला का अधिकरी है, वह अज्ञानी के भाग्य में कहाँ !
. ज्ञानी पुरुष का पदार्थों के प्रति मोह नहीं होता, अतएव वह किसी भी पदार्थ को अपना बनाने के लिये विचार ही नहीं करता और जो उसे अपना नहीं बनाना चाहता, वह उसका अपहरण तो कर ही कैसे सकता है ! वह सोने और मिट्टी को समान दृष्टि से देखता है, उसके लिए तृण और मणि समान हैं।
___ इस प्रकार जिस साधक की दृष्टि अन्तर्मुख हो जाती है, उसे पदार्थों का स्वल्प कुछ निराला ही नजर आने लगता है । वह आत्मा और परमात्मा को अपने में ही देखने लगता है । उसे अपने भीतर पारमात्मिक गुणों का अक्षय