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। २८७ ... पहले बतलाया जा चुका है कि ब्रत को सोच-समझ कर हढ़ संकल्प के : साथ अंगीकार करना चाहिए और अंगीकार करने के पश्चात् हर कीमत पर उसका पालन करना चाहिए । व्रत को स्वीकार कर लेना सरल है मगर पालना कठिन होता है। किन्तु जिसका संकल्प सुदृढ़ है उसके लिए व्रत पालन में कोई बड़ी कठिनाई नहीं होती। हां, यह आवश्यक है कि व्रत के स्वरूप को और उसके अतिचारों को भली-भांति समझ लिया जाए और अतिचारों से बचने का सदा ध्यान रखा जाए । इस व्रत के भी पांच अतिचार जानने योग्य हैं । किन्तु आचरण करने योग्य नहीं है । वे इस प्रकार हैं
(१) प्रानयन प्रयोग-मनुष्य के मन में कभी-कभी दुर्बलता उत्पन्न हो. • जाती है। किसी प्रकार का व्रत की मर्यादा का उल्लंघन करने वाला. आकर्षण.....
पैदा हो जाता है। उस समय वह कोई रास्ता निकालने की सोचता है। मर्यादित क्षेत्र से बाहर उसे जाना नहीं है मगर वहां की किसी चीज की अावश्यकता उसे महसूस होती है। ऐसी स्थिति में स्वयं न जाकर किसी: दूसरे से कोई वस्तु मंगवा लेना, यह अतिचार है। इस प्रकार के प्रयोग से
व्रत का मूल उद्देश्य नष्ट हो जाता है । ..........(२) प्रष्य प्रयोगः-मर्यादित क्षेत्र से बाहर किसी को भेज कर काम
करवा लेना भी अतिचार है। किसी श्रावक ने सैलाना की सीमा में ही व्यापार .. करने का नियम लिया है, किन्तु इन्दौर या. रतलाम में विशेष लाभ देखकर . पुत्र या मुनीम को भेजकर व्यापार करना, यह भी इस व्रत का अतिचार है। . ऐसा करने से भी व्रत के उद्देश्य में बाधा आती है।
-: (३) शब्दानुपातः-ग्रावाज देकर किसी को मर्यादित क्षेत्र के भीतर .. बुला लेना और बाहर जाकर जो काम करना था वह उसी क्षेत्र में कर लेना ...शब्दानुपात नामक अतिचार है। मान लीजिए किसी साधक ने पौषधशाला से
बाहर न जाने का व्रत लिया। अचानक उसे बाहर का कोई काम पड़ गया। , ऐसी स्थिति में वह स्वयं बाहर न जाकर किसी को आवाज देकर पौषधशाला..