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पात्रता
- कोई भव्यजीव जब वास्तविक सम्यग्दृष्टि प्राप्त कर लेता है, वस्तु के यथार्थ स्वरूप को समझ लेता है, संसार की असारता को विदित कर लेता है परिग्रह को समस्त दुःखों का मूल समझ लेता है और यह सब जान लेने के पश्चात् अात्मस्वरूप में निराकुलतापूर्वक रमण करने के लिए संसार से विमुख हो जाता है, तब जगत का विशालतम वैभव भी तुच्छ प्रतीत होने लगता है। राजसी भोग उसे भुजंगम के समान प्रतीत होने लगते हैं। तब वह मुनिधर्म की साधना में तत्पर हो जाता है। ऐसा साधक शनैः शनैः कदम उठाने की अपेक्षा एक साथ शक्तिशाली कदम उठाना ही उचित मानता है। .: कुछ साधक ऐसे भी होते हैं जो धीरे २ अग्रसर होते हैं। अन्तर में ज्ञान की चिनगारी प्रज्वलित होते ही वे अकर्मण्य न रह कर जितना सम्भव हो उतना ही साधन करते हैं। वह देश विरति को अंगीकार करते हैं। कुछ
भी न करने की अपेक्षा थोड़ा करना बेहतर है । अंग्रेजी में एक उक्ति प्रसिद्ध ...है- Something is better th in nothing. हमें कह सकते हैं'प्रकरणान्मन्द करणं श्रयः।
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इस प्रकार देशविरति अविरति से श्रेष्ठ है। आनन्द सर्वविरति को अंगीकार करने में समर्थ नहीं हो सका, अतः उसने देशविरति ग्रहण की। .. इस प्रसंग में आठवें व्रत सामायिक के अतिचारों का निरूपण किया जा चुका
है। बतलाया गया था कि सामायिक की अवस्था में मन, वचन और काम का ... ... व्यापार अप्रशस्त नहीं होना चाहिए । जिस व्यापार से समभाव का विघात .