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'. [१७ . कर डाली है । कई देवों और देवियों को तो रक्त पिपासु के रूप में कल्पित कर लिया है ! मगर क्या देवी-देवता रक्त से प्रसन्न होंगे ? रक्त की चूद. कपड़े पर पड़ जाती है तो मनुष्य उसे तत्काल धोना चाहता है. और जब तक. नहीं धो डालता तब तक मन में अमावनता का अनुभव करता है । जो रक्त . इतना अपावन और अशं चि है. उसे क्या देवता उदरस्थः करके संतुष्ट और
प्रसन्न हो सकता है ? मगर जो स्वयं जिह वालोलुप है और खून जिसकी दाढ़ों · · में लग गया है, वह देवी-देवता के नाम पर पश की बलि चढ़ाता और ___ उसका उपदेश करता है । यह सब निम्न श्रेणी की कामना के रूप हैं । तुलसीदासजी ने ठीक ही कहा है
. 'जाको रही भावना जैसी,
.. प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।'
अब रूपकोशा का आकर्षण भोगी पुरुषों की ओर न रहकर परमात्मा की ओर हो गया। उसका चित्त भोगों से और भोग सामग्री से विरक्त हो गया। अनादिकालीन मोह के संस्कारों के कारण आत्मा स्वभाव से विमुख होकर विभाव की ओर प्रेरित होता है । भोग उसे प्रिय लगते हैं और इसी. दुर्वृत्ति के कारण लोग बड़े चाव से अपने मकानों की दीवालों पर अश्लील .
चित्र लगाते हैं। जहां देखो जनता को भड़काने वाले चित्र दृष्टि पथ में आते .... हैं । इन चित्रों द्वारा देखने वालों की मानसिक प्रवृत्ति तो पतनोन्मुख होती ही
है नारी जाती का अपमान भी होता है। विज्ञापनों तथा कलेंडरों के नारी. . चित्रों की वेषभूषा पूर्ण नग्न नहीं तो अर्द्धनग्न तो रहती ही है उनके शरीर
पर जो वस्त्र दिखाये भी जाते हैं वे अंगों के आच्छादन के लिये नहीं प्रत्युत उन्हें कृत्सितता के साथ प्रदर्शन के लिए ही होते हैं । अाज जनता की सरकार भी इधर कुछ ध्यान नहीं देती। पर अाज की अपने अधीकारों को जानने वाली नारियां भी इस अपमान को सहन कर लेती हैं, यह विस्मय की बात है। अगर महिलाएं इस ओर ध्यना दें और संगठित प्रयास करें तो मातृ जाति .. का इस प्रकार अपमान करने वालों को सही राह पर ला सकती हैं। . . .
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. रूपकोशा ने अपनी चित्रशाला को धर्मशाला के रूप में बदल दिया।