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सामायिक
वीतराग देव ने आध्यात्मिक साधना का बड़ा महत्त्व बतलाया और जब कोई भी साधक साधना के महत्त्व को हृदयंगत करके उसके वास्तविक रूप को अपने जीवन में उतारता है तो उसके जीवन का मोड़ निराला हो जाता है। चाहे उसकी बाह्य प्रवृत्तियां एवं चेष्टाएँ बदली हुई प्रतीत न हों तथापि यह निश्चित है कि साधनाशीलता की स्थिति में जो भी कार्य या संसार व्यवहार किये जाते हैं, उनके पीछे साधक की वृत्ति भिन्न प्रकार की होती है। एक ही प्रकार का कार्य करने वाले दो व्यक्तियों की आन्तरिक वृत्ति में जमीनआसमान जितना अन्तर हो सकता हैं । उदाहरण के लिए भोजन क्रिया को लीजिए । एक मनुष्य जिह्ववालोलुप होकर भोजन करता हैं और दूसरा जितेन्द्रिय पुरुष भी भोजन करता है । ऊपर से भोजन क्रिया दोनों की समान प्रतीत होती हैं । किन्तु दोनों की प्रान्तरिक वृत्ति में महान् अन्तर होता है। प्रथम व्यक्ति रसना के सुख के लिए अतिशय गृद्धिपूर्वक खाता है जबकि जितेन्द्रिय पुरुष लोलुपता को निकट भी न फटकने देकर केवल शरीर निर्वाह की दृष्टि से भोजन करता है। उसके मन में लेशमात्र भी गृद्धि नहीं होती। ___इस प्रकार एक-सी प्रवृत्ति में भी वृत्ति की जो भिन्नता होती है, उससे परिणाम में भी महान् अन्तर पड़ जाता है। जितेन्द्रिय पुरुष के भोजन का प्रयोजन संयम-धर्म-साधक शरीर का निर्वाह करना मात्र होने से वह कर्म-बन्ध नहीं करता, जबकि रसनालोलुप अपनी गृद्धि के कारण उसे कर्म-बन्ध का कारण बना लेता है । यह साधना का ही परिणाम है। यही नहीं, साधना विहीन व्यक्ति रूखा-सूखा भोजन करता हुआ भी हृदय में विद्यमान लोलुपता