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उसमें कमजोरी न आने दी जाय । अकसर ऐसा होता है कि किसी प्रसंग पर मनुष्य की भावना ऊपर उठती है और वह मंगलमय मार्ग पर प्रगण करने को उद्यत हो जाता है किन्तु थोड़े समय के पश्चात् उसका जोश ठंडा पड़ जाता है
और स्वीकृत व्रत में आस्था मन्द हो जाने पर वह गली-कूचा खोजने लगता है । यह गली-कूचा खोजना या व्रत की मर्यादा को भंग करने का मार्ग निकालना ही अतिचार कहलाता है। अतिचार के सेवन से व्रत का वास्तविक उद्देश्य नष्ट हो जाता है । उससे श्रात्मा को प्राप्त होने वाली शान्ति प्राप्त नहीं होती। अतएव गृहस्थ के सभी व्रतों के साथ पांच-पांच अतिचारों का वर्णन किया गया है, जिससे व्रती पुरुष उनसे भली भांति परिचित रहे और बचता भी रहे। ... इसी दृष्टिकोण से यहां व्रतों के विवेचन के साथ उनके अतिचारों का भी निरूपण किया जा रहा है। अनर्थदण्ड के अतिचारों में कन्दर्पकथा, कौत्कुच्य और मौरवयं के विषय में कहा जा चुका है। उनकी संक्षेप में व्याख्या .. भी की जा चुकी है। यहां चौथे अतिचार पर विचार करना है। .. (४) संयुक्ताधिकरणताः-उपकरण और अधिकरण में शाब्दिक दृष्टि से बहुत अन्तर न होते हुए भी दोनों के अर्थ में महान् अन्तर है। धर्म का साधन उपकरण कहलाता है जब कि अधिकरण वह है जो पाप का साधन हो। जिसके द्वारा आत्मा दुर्गति का अधिकारी बने वह अधिकरण (अधिक्रियते आत्मा दुर्गतौ येन तदधिकरणम्) ऐसी अधिकरण शब्द की व्युत्पत्ति है। ' अधिकरण दो प्रकार के हैं-द्रव्य-अधिकरण और भाव-अधिकरण, तलवार, बंदूक अादि पौद्गलिक शास्त्र, जो हिंसा के साधन हैं, द्रव्याधिकरण कहलाते हैं और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि अप्रशस्त भाव भावाधिकरण । - कैंची, चाकू, फावड़ा, कुदाली, कुल्हाड़ी, कटार, तलवार आदि साधन गृहस्थ को किसी वस्तु के छेदन, भेदन आदि प्रयोजनों के लिए रखने . पड़ते हैं। किन्तु सद्गृहस्थ उन्हें इस प्रकार रक्खेगा कि सहज ही दूसरा उन्हें काम में न ला सके । वह बंदूक में गोली भर कर नहीं रक्खेगा। अनिवार्य आवश्यकता के समय वह इनका उपयोग करेगा। इनके निर्माण का धंधा भी नहीं करेगा।