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२२७ ] शक्ति महान् पुण्य के योग से प्राप्त होती है ! पुण्य के प्रताप से प्राप्त शाक्ति का पाप के उपार्जन में प्रयोग करना बुद्धिमत्ता नहीं है ।
वाणी को पाप के मार्ग में लगाया गया तो इससे पेट भी नही भरा और कुछ लाभ भी नहीं हुआ, मगर पाप का बन्ध तो हो ही गया ।
अज्ञानी वाणी का व्यभिचार करता है और ज्ञानी उसका ठीक उपयोग करता है ।
स्व और पर में ज्योति जगाने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है । महर्षियों ने श्रुत का संकलन प्रतीव परिश्रम से किया और इस महान कार्य के लिए अपने आराम को भी हराम समझा था । यह श्रुत संरक्षण का कार्य महावीर स्वामी के निर्वाण के दो सौ वर्ष बाद चार्य संभूतिविजय के समय में हुआ ।
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बंद नहीं हुई । हे साधको !
गंगा की धारा के समान श्रुत की धारा कभी जिस प्रकार आकाश में सूर्य और चन्द्र शाश्वत हैं, रहेगा परन्तु उसका प्रचार और प्रसार होगा बल पर ही ।
उसी प्रकार श्रुत भी सदैव
किसके बल पर ? पुरुषार्थ के
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संघ ने निर्णय किया- यदि भद्रबाहु वहीं रह कर आगम सेवा का लाभ दें तो कोई आपत्ति नहीं। इससे दोनो प्रयोजनों की पूर्ति हो सकेगी। उनका महाप्राण ध्यान भी सम्पन्न हो जाएगा और श्रुत की वाचना भी हो जाएगी ।
भद्रबाहु ने आगम की सात वाचनाएं देने का बचन दिया । अतः संघ ने अपने श्रमण वर्ग में से जो विशिष्ठ जिक्षासु थे, ज्ञान ग्रहण करने की जिनकी भावना तीव्र थी, उन्हें ग्राह्वान किया। पूछा गया कि कौन भद्रबाहु स्वामी के पास जाना चाहता है ? श्रतसेवी सन्तों में स्थूलभद्र का पहला नम्बर
आया ।
स्थूलभद्र का नाम सुनकर प्राचार्य संभूतिविजय बहुत प्रसन्न हुए । उन्हें लगा कि वे भद्रबाहु के ज्ञान समुद्र में से अवश्य ही बहुमूल्य रत्न प्राप्त कर सकेंगे। कई अन्य मुनियों को भी उनके साथ भेजने का निश्चय किया
गया।