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[ ३३३ जा सकता। इसी कारण शास्त्र में प्रतिचारों के लिये 'जाणिवा' न समारिव्वा ऐसा पाठ दिया गया है ।
श्रावकधर्म और मुनिधर्म के सभी नियम और संवर, निर्जरा श्रादरणीय हैं । प्रत्येक व्यक्ति का धर्म के प्रति आदरभाव होना चाहिए और प्रतिवारों से बचना चाहिए ।
श्रानन्द श्रावक यदि अणुव्रतों और शिक्षाव्रतों को मस्तिष्क तक ही रखता और आचरण में न लाता तो उसके जीवन का उत्थान न होता । वह व्रतों को समझता है और समझने के साथ अंगीकार भी करता है वह व्रत के दूणों को भी समझता और त्यागता है । व्रत के दोषों का त्याग किये बिना निर्मल व्रतपालन संभव नहीं है । श्रानन्द ने सातवें व्रत को ग्रहण करने के साथ पन्द्रह कर्मादानों का त्याग कर दिया, जिनका उल्लेख किया जा चुका है ।
गृहस्थ का काम नहीं
जिसके बिना ऐसी हिंसा का
भले ही वह त्याग नं
आठवां व्रत अनर्थदण्डत्याग है। चलता, जो गृहस्थ जीवन में अनिवार्य है, कर सके मगर निरर्थक हिंसा के पाप का जिस हिंसा से किसी प्रयोजन की पूर्ति न होती हो, उसके भार से अपनी आत्मा
त्याग तो उसे
करना ही चाहिए ।
ग्रानन्द ने अनर्थदण्ड
सत्य का व्यवहार नहीं.
को भारी एवं मलीन बनाये रखना बुद्धिमता नहीं है । का त्याग और संकल्प किया कि वह निरर्थक हिंसा करेगा । इस संकल्प की पूर्ति के लिए उसने इस व्रत के त्याग किया | अनर्थदण्ड विरमरण व्रत के पांच प्रतिचार इस प्रकार हैं
पांच प्रतिचारों का भी
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(१) कन्दप्प ( कन्दर्प कथा ) - जैसे सत्यभामा को भामा और बलराम को राम कह दिया जाता है, उसी प्रकार यहां कन्दर्पकथा को कन्दर्प कहा गया है ।
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मनुष्य को निरर्थक पाप नहीं करना चाहिए, क्योंकि इससे आत्मा मलीन होती है और प्रयोजन कुछ सिद्ध नहीं होता । अनावश्यक कुतूहल के