________________
२२२]
समग्र विश्व का रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत हो जाता है अर्थात् हमें प्रतीत हो जाता है कि इस सृष्टि के मूल उपादान तत्त्व क्या-क्या और कौन-कौन से हैं ?
.. किन्तु श्राध्यात्मिक दृष्टि से जब वर्गीकरण किया जाता है तो मूल तत्वों की संख्या नौ निर्धारित की जाती है। अध्यात्म के क्षेत्र में इस प्रकार का वर्गीकरण ही अधिक उपयुक्त है। मगर इस सम्बन्ध में विस्तार से विचार करने के लिए यह अवसर अनुकूल नहीं है। क्योंकि इस समय चारित्र का निरूपण चल रहा है, अतएव उसी के सम्बन्ध में प्रकाश डालना है । आचरण की दृष्टि से जगत् के पदार्थों को तीन भागों में बांटा गया है:
(१) हेय-त्याग करने योग्य, (२) उपादेय-ग्रहण करने योग्य, और (३) शेय-केवल जानने योग्य ।
संसार की सभी वस्तुएं इन तीन वर्गों में समाविष्ट हो जाती हैं। इसे यों भी कहा जा सकता है कि ज्ञेय पदार्थ हेय और उपादेय, इन दो भागों में बांटे जा सकते हैं।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि सद्गुण उपादेय अर्थात् ग्रहण करने योग्य हैं। अगर ये सद्गुण सिर्फ ज्ञेय होकर ही रह जाएं तो इनका कोई उपयोग नहीं है। एक मनुष्य अहिंसा के मर्म को जानता है, उस पर घंटों प्रवचन कर सकता है, दूसरे के दिमाग में बिठा सकता है परन्तु उसे अपने जीवन में व्यवहृत नहीं करता तो इससे उसे क्या लाभ होने वाला है ? कुछ भी नहीं।
जिस प्रकार अहिंसा आदि व्रत उपादेय हैं, उसी प्रकार उनके अतिचार त्यागने योग्य हैं। साधक का कर्तव्य है कि जब वह व्रतों को जान कर अंगीकार करे तो उनके अतिचारों को भी समझ ले और समझ कर उनसे बचता रहे । जैसे उपादेय वस्तु का जाने विना उपादान अर्थात् ग्रहण नहीं किया जा सकता उसी प्रकार हेय वस्तु का जाने विना हान अर्थात् परिहार नहीं किया