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प्रारम्भ के तीन विनय साध्य हैं और उनके वाद के मनोविनय, वचन विनय
और कायविनय उनके साधन हैं। सातवां उपचार विनय है। उन्होंने उपचारविनय की दृष्टि से सुखद शब्दावली का प्रयोग किया। वे बोले--मैं श्रुताभ्यास करने वाले मुनियों को पर्याप्त समय दूंगा। मैं अपने प्रारंभ किये हुए ध्यानयोग का भी निर्वाह करूंगा और श्र तसेवा का भी निर्वाह करूंगा।
भद्रवाह स्वामी अपने काल के महान् सन्त थे, सन्तों में शिरोमणि थे। द्वादशांगों के ज्ञाता थे। फिर भी संघ के आदेश को उन्होंने टाला नहीं, क्योंकि संघ की सत्ता सर्वोपरि होती है। कोई व्यक्ति कितना ही महान क्यों न हो, वह संघ से बड़ा नहीं होता। उसे संघ के आदेश का अनुसरण करना ही चाहिए। अाखिर महान् होने पर भी वह संघ का ही एक अंग है। संघ से पृथक व्यक्ति का क्या गौरव है ? इसीलिए शास्त्रों में संघ को बहुत ऊंचा स्थान दिया गया है, उसे भगवान् कहा गया है। आपको विदित होगा कि नन्दीसूत्र में सामान्य तीर्थकरों को और भगवान् महावीर की स्तुति में जहां एक एक गाथा लिखी गई है वहां संघ की स्तुति में अनेक गाथाएं दी गई हैं और शास्त्रकार ने असाधारण भक्तिपूर्वक संघ की वन्दना की है। इससे जाना जा सकता है कि हमारे पुरातन महापुरुष संघ को कितना उच्च स्थान प्रदान करते थे। संघ को धर्म के क्षेत्र में सर्वोच्च स्थान मिलना सर्वथा समुचित है, क्योंकि तीर्थंकर भगवान् के शासन का वह आधार है। उसी में धर्म का व्यवहार्य रूप दृष्टिगोचर होता है । संघ धर्म का प्रवर्तक और संचालक है। यही कारण है
कि धर्म की प्रवृत्ति के लिए तीर्थंकर भगवान् संघ की स्थापना करते हैं। संघ . की सुरक्षा में धर्म की सुरक्षा और संघ की प्रतिष्ठा में धर्म की प्रतिष्ठा है।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों के धारक साधु-साध्वी, श्रावक-श्रविका समूह को संघ कहते हैं। संख्या में छोटा हो या बड़ा, गुणों के कारण संघ बड़ा महनीय है । संघ का संगठन सुदृढ़ होता है तो संयम का पालन समीचीन रूप से होता है । संघ में भेद उत्पन्न होता है तो शासन का तेज मन्द हो जाता और उसकी शक्ति कम हो जाती है। इसी कारण संघ में भेद उत्पन्न करना बड़े से .