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सन्तुष्ट नहीं है । तब उन्हें विचार आया-इस समय ऐसा करना ही समुचित होगा कि संघ का अविनय भी न हो और मेरा भी प्रारब्ध कार्य सम्पन्न हो जाय । विश्राम कम करके यदि रात्रि का समय ध्यान में लगाया जाएगा तो शास्त्रवाचना और ध्यानयोग दोनों का सम्यक् प्रकार से निर्वाह हो जाएगा। इस प्रकार विचार करके भद्रवाहु ने मुनियों को उत्तर दिया-भद्रवाहु संघ के आदेश को शिरोधार्य करता है। वह संघ की प्रत्येक आज्ञा का पालन करने को उद्यत है। .
बन्धुनो ! बात के कहने-कहने में अन्तर होता है। एक ही बात एक ढंग से कहने पर श्रोता के चित्त पर जो प्रभाव पड़ता है दूसरे ढंग से कहने पर उसी का प्रभाव दूसरा होता है । शिष्ट जन संयत भाषा का प्रयोग करते हैं। (१) मैं नहीं आ सकता और (२) क्षमा कीजिए, मैं आवश्यक कार्य से प्राने में असमर्थ हूँ । इन दो उक्तियों का प्रतिपात्र विषय एक ही है, परन्तु शब्दावली में अन्तर है। मगर शब्दावली के इस अन्तर में अशिष्टता और शिष्टता भी छिपी हुई है। संयत भाषा के प्रयोग से कार्य भी सिद्ध हो जाता है और विनम्रता एवं शिष्टता की भी रक्षा हो जाती है। गुरु अपने शिष्य को कह सकता है कि तुम्हें बोलने का भान नहीं है, मगर शिष्य यदि गुरू से. कहे कि आपको विवेक नहीं है, तो यह अविनय और अशिष्टता होगी, वृद्ध पितामह से कहा जाय कि-बाबा साहब, हम आपकी सेवा में हैं अब आपको करने की आवश्यकता नहीं, हम सब कर लेंगे, तो इससे न केवल वृद्ध को अपितु अन्य सुनने वालों को भी अच्छा लगेगा, किसी के दिमाग में उत्तेजना नहीं होगी
और काम भी चल जाएगा। तात्पर्य यह है कि विवेकशील व्यक्ति को शिष्टता. पूर्ण, नम्रताद्योतक और साथ ही अपनी पदमर्यादा का ध्यान रखते हुए भाषा का समुचित प्रयोग करना चाहिए।
आचार्य भद्रवाहु ने लोकोपचार विनय का आश्रय लिया। विनय सात प्रकार का है--(१) ज्ञानविनय (२) दर्शनविनय (३) चारित्रविनय (४) मनोविनय (५) वचन विनय (६) काम विनय और (७) लोकोपचार विनय ।