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. एक बड़ी पूंजी मानी जाती है । जिस की पैठ नहीं वह व्यापारी दिवालिया
कहा जाता है। अतएव व्यापार के क्षेत्र में भी वही सफलता प्राप्त करता है जो नीति और धर्म के नियमों का ठीक तरह निर्वाह करता है। ..
श्रावक धर्म में अप्रामाणिकता और अनैतिकता को कोई स्थान नहीं है। व्यापार केवल धन संचय का ही उपाय नहीं है । अगर विवेक को तिलांजलि
न दे दी जाय और व्यापार के उच्च आदर्शों का अनुसरण किया जाय तो वह ... समाज की एक बड़ी सेवा का निमित्त भी हो सकता है प्रजा की आवश्यकताओं
की पूर्ति करना अर्थात् जहां जीवनोपयोगी जो वस्तुएं सुलभ नहीं हैं, उन्हें सुलभ कर देना व्यापरी की समाज सेवा है किन्तु वह सेवा तभी सेवा कहलाती है जब व्यापारी अनैतिकता का आश्रय न ले, एक मात्र अपने स्वार्थ से प्रेरित होकर अनुचित लाभ न उठावे । संक्षेप में कहा जा सकता है कि श्रावक धर्म
का अनुसरण करते हुए जो व्यापारी व्यापार करता है, वह समुचित द्रव्योपार्जन - करके भी देश और समाज की बहुत बड़ी सेवा कर सकता है। .. (५) तत्प्रति रूपक व्यवहार-अचौर्य व्रत का पांचवां अतिचार
तत्प्रतिरूपक व्यवहार है, जिसका अर्थ है बताना कोई अन्य माल और देना कोई अन्य माल । बढ़िया चीज दिखाना और घटिया चीज देना, असली माल की बानगी देकर नकली दे देना, यह तत्प्रतिरूपक व्यवहार है । इस प्रकार ठगाई करके खराज माल देने वाला अपनी प्रामाणिकता गवां देता है । माल घटिया हो और उसे घटिया समझ कर ग्राहक खरीदने को तैयार हो तो बात दूसरी हैं, क्योंकि ग्राहक अपनी स्थिति के अनुसार ऐसे माल से भी अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर लेता है । मगर अच्छा माल दिखलाकर और अच्छे .. का मूल्य लेकर खराब माल मिला देना प्रामाणिकता नहीं है ।
श्रावक अपने अन्तरंग और वहिरंग को समान स्थितियों में रखता है । वचन से कुछ कहना और मन में कुछ और रखना एवं क्रिया किसी अन्य प्रकार की करना श्रावक-जीवन से संगत नहीं है । श्रावक भीतर-बाहर में समान होता है । संसार में ऐसे व्यक्ति की ओर कोई अंगुली-निर्देश भी नहीं कर सकता. इस लोक और परलोक में उसकी सद्गति होती है । कहा है कि