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२०२] होने वाले पदार्थों का उपयोग करने वाले अनुमोदना का पाप उपार्जन करते हैं । इन्हीं सब प्रत्यक्ष और परोक्ष पापों को दृष्टि में रख कर भगवान् महावीर ने. यंत्रपीडन कर्म को निषिद्ध कर्म माना है ... .. .... . ..
सर्वविरति को अंगीकार करने वाले भोगोपभोग की वस्तुओं के उत्पादन से सर्वथा विरत होते हैं। और देशविरति का पालन करने वाले श्रावक मर्यादा के साथ महारंभ से बचते हुए उत्पादन करते हैं । अपने व्रतों में कदाचित् किसी प्रकार की स्खलना हो जाय तो उसकी आलोचना और प्रायश्चित्त करके उसके प्रभाव को निर्मल करते हैं।
सिंहगुफावासी मुनि के संयम में जो स्खलना हो गई थी, उसकी शुद्धि के लिए वे अपने गुरु के श्री चरणों में उपस्थित हुए। उन्होंने अपने प्रमाद को अनुभव किया और प्रमाद जनित दोष की शुद्धि की। वीर पुरुप फिसल कर भी अपने को गिरने नहीं देता । निर्बल गिर कर चारों खाने चित हो जाता है।
उधर मुनि शुद्धि करके बाराधक बने, उन्होंने अपने प्राचार को निर्मल बनाया और इधर प्राचार्य मंभूति विजय को भी भाव-सेवा का लाभ मिला
और उसने कर्म की निर्जन हुई। दूसरे की साधना में सहायक वनने वाला भी महान सेवाव्रती होता है।
मंमार में प्रागिायों की तीन श्रेणियां पाई जाती है(१) सारंभी, मपरिगही (२) अनाभी, अपरिग्रही (३) अल्पारंभी, अल्पपरिग्रही। ... . . . .... ..
इनमें से श्रमग का जीवन इनरी श्रेणी में आता है । धमग्ण मंब प्रकार के यारंभ पार पनिट ने रहित होता है।
पाटलीपुत्र में भयंकर भिक्ष पड़ा तो साधुनों को भिक्षालाभ करने में अत्यन्त काट होने लगा। गृहस्यों को अपना पेट भरना कठिन हो गया ? ऐसी