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[ १८५ के कर्म विषयक प्रतिचारों का जिन्हें कर्मादान कहते हैं, विवेचन चल रहा है । कल रसवाणिज्य के विषय में कहा गया था ।
मद्य का व्यवसाय करना खर कर्म है । पूर्वकाल में मद्य का उपयोग कम होता था । उस समय की प्रजा में भोग की लालसा कम थी, अतएव भोग्य पदार्थों का भी ग्राज की तरह प्रचुर मात्रा में आविष्कार नहीं हुआ था । उस समय के लोग बहुत सादगी के साथ जीवन व्यतीत करते थे और स्वल्प सन्तोषी होने के कारण सुखी श्रौर सान्त थे । ग्राज वह बात नहीं है। भांति'भांति की मदिराए तो आजकल बनती और बिकती ही हैं, अन्य पदार्थों में, विशेषतः दवाइयों में भी उनका सम्मिश्रण होता है। एलोपैथिक दवाएं, जो द्रव के रूप में होती हैं, उनमें प्रायः मदिरा का संयोग पाया जाता है। जो लोग मंदिरा पान के त्यागी हैं उन्हें विचार करना चाहिये कि ऐसी दवाओं का सेवन कैसे कर सकते हैं ?
बहुत 'से लोग लोभ-लालच में पड़ कर मदिरा बनाते या बेचते हैं । वे समझते हैं कि इस व्यापार से हमें बहुत अच्छा मुनाफा मिलता है ! किन्तु ज्ञानी जन कहते हैं तू ने पैसा इकट्ठा कर लिया है और ऐसा करके फूला नहीं समा रहा, यह सब तो ठीक है, मगर थोड़ा इस बात पर भी विचार कर कि तू ने कर्म का भार अपनी ग्रात्मा पर कितना बढ़ा लिया है ? जब इन कर्मों का उदय आएगा और प्रगाढ़ दुःख-वेदना का अनुभव करना पड़ेगा, उस समय क्या वह पैसे काम आएंगे ? उस धन से दुःख को दूर किया जा सकेगा ? पैसा परभव में साथ जा सकेगा ?
डालडा तेल का निर्माता छुरी चलाता नहीं दीख पड़ता, मंगर वह प्रचार करता है हम देश की महान् सेवा कर रहे हैं। यह वनस्पति का घी है, पौष्टिक वस्तु है । लोग इसका अधिक सेवन करेंगे तो दूध की बचत होगी और बच्चों को दूध अधिक सुलभ किया जा सकेगा !
इस प्रकार जनता के जीवन के साथ खिलवाड़ की जाती है और उसे - देश सेवा का जामा पहनाया जाता है । डालडा का तो उदाहरण के तौर पर ही