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रीत दिशा में बहता है, अतएव वे कल्याणकर विचार न करके अकल्याणकारी विचारों को ही स्थान देते हैं। उनको भी श्रति का यथार्थ लाभ नहीं मिलता।
श्रुति दो प्रकार की है-अपरा और परा । अपर जिस श्रति के विषय में कहा गया है वह सव अपरा श्रुति कहलाती है । यह सामान्य श्रति है जो व्यावहारिक प्रयोजन की पूत्ति करती है । परा श्रुति पारमर्थिक श्रति है जिसके द्वारा मानव अपनी आत्मा को ऊपर उठाता है। उससे आत्मा को अपने स्वरूप का बोध होता है, तप, क्षमा, अहिंसा आदि सद् गुणों की भावना जागृत होती है और क्रोध, मान, माया, लोभ. हिंसा आदि की भावना दूर भागती है । इसी परा श्रुति को ज्ञानी पुरुष मुक्ति का अंग मानते हैं। यह श्रुति सर्वसाधारण को दुर्लभ है।
___ संसार के अनन्त-अनन्त जीवों में से बिरले ही कोई परा श्रति का संयोग पाते हैं और उनमें से भी कोई-कोई ही ग्रहण करने में समर्थ होते है। ग्रहण करने वालों में से भी कोई विरल मानव ही उसे परिणत करने में समर्थ होते हैं।
भूमि में डाले गये सभी बीज अंकुरित नहीं होते। इसमें किसान का क्या दोष है ? कदाचित् समस्त बीज भी नष्ट हो जाए तो भी किसान क्या करे ? बीजों के अंकुरित होने में कई कारणों की आवश्यकता होती हैं। उनमें से कोई एक न हुआ तो बीज अंकुरित नहीं होता । इसी प्रकार व्याख्याता ज्ञानी जनों के वचनों को श्रवण कराता है। मगर श्रवण करने वालों की मनोदशा अनुकूल न होगी तो श्रवण सार्थक नहीं हो सकेगा। जिनका भाग्य ऊंचा है या जो उच्चकोटि के पुण्यानुबन्धी पुण्य से युक्त हैं और जिनकी आत्मा सम्यक्त्व से उज्ज्वल है या जिनका मिथ्यात्वभाव शिथिल पड़ । गया है, वही मनुष्य श्रति से वास्तविक लाभ उठा सकते हैं।
गृहस्थ आनन्द ने वीतराग की वाणी श्रवण की; ग्रहण की और उसका परिणमन किया।. उसी का प्रसंग यहां चल रहा है । भोगोपभोग प्रातः .