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आते ही विचलित हो गए। अपनी मर्यादा से बाहर होकर रत्नकम्वल लेने के लिए वे नेपाल पहुँचे। रास्ते में कम्बल लुट गया तो दूसरी बार याचना करने में भी उन्होंने संकोच नहीं किया । कठिन यात्रा करके वे पाटली पुत्र पहुँचे और मन ही मन अपने पुरुषार्थ को स्वयं सराहने लगे । मगर रूपाकोशा ने क्षण भर में सारा गुड़ गोवर कर दिया । उसने रत्नकंबल से पैर पौंछ कर उसे यों फैंक दिया मानो वह कोई फटा हुआ चिथड़ा या पुराना टाट का टुकड़ा हो । यह देख कर मुनिःको प्रवेश प्रा जाना स्वाभाविक ही था । उन्होंने कहा रूपाकोशां तू अत्यन्त ही नादान है ।
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रूपाकोशा बोली- महाराज; मैंने क्या नादानी की है ?.
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मुनि - मूल्यवान् रत्नकंबल का क्या यही उपयोग है ?
रूपाकोशा-तो आपका अभिप्राय यह है कि जो वस्तु मूल्यवान् हो उस का उपयोग साधरण काम में नहीं करना चाहिए ?
मुनि --- इस बात को तो बच्चा बच्चा समझता है । क्या तुम नहीं समझती ?
रूपाके शा- मैं तो बखूबी समझती हूँ पर ग्राप ही इस बात को नहीं समझते । ग्राश्चर्य है कि जो बात मुझे समझाना चाहते हैं उसे आप स्वयं नहीं समझते । आप “पर उपदेश कुशल बहुतेरे" की कहावत चरितार्थ कर रहे हैं ।
मुनि सो कैसे ? मैंने किस वस्तुका क्या दुरुपयोग किया हैं ।
रूपाकोशा मोह के उदय से आपकी विवेकशक्ति सो गई हैं, इसी कारण आप समझ नहीं पा रहे हैं ।
मुनि - क्यों पहेली बुझा रही है ।.
-रूपाकोशा- पहेली नहीं बुझा रही महाराज, आपके हृदय की प्रांग बुझा रही हूँ | मूल्यवान् रत्नकंबल से पैर पौंछना श्राप नादानी समझते हैं परन्तु