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१६६ ] जानना किस काम का ? ज्ञानी पुरुषों का कथन तो यह है कि जिस ज्ञान के फलस्वरूप आचरण न बन सके, वह ज्ञान वास्तव में ज्ञान ही नहीं है । सच्चा ज्ञान वही है जो आचरण को उत्पन्न कर सके । निष्फल ज्ञान वस्तुतः अज्ञान की कोटि में ही गिनने योग्य है। . . .
इसी दृष्टि कोण को सामने रख कर भगवान् महावीर ने ज्ञान और चारित्र दोनों को मोक्ष का अनिवार्य कारण कहा है । जहाँ तक ज्ञान का प्रश्न है, मुनि
और गृहस्थ दोनों समान रूप से उसकी साधना कर सकते हैं, मगर चारित्र के संबंध में यह संभव नहीं है। इस कारण चारित्र दो रूपों में विभक्त कर दिया गया है-मुनि धर्म और श्रावक धर्म ! दोनों को अपनी-अपनी मर्यादा के अनुसार और शक्ति के अनुसार अपने-अपने धर्म का पालन करना चाहिए । इस विषय में पहले प्रकाश डाला जा चुका है ।
गृहस्थों के सामने आनन्द श्रावक का जीवन आदर्श रूप है। उसका विवेचन एक प्रकार से गृहस्थ चारित्र का विवेचन है। भगवान् ने उसे धर्म देशना दी। उसे बोध प्राप्त हुआ और फिर उसने श्रावक धर्म को अंगीकार किया। इसी प्रकरण को लेकर कर्मादानों का विवेचन चल रहा है। पांच कर्मादानों के विषय में प्रकाश डाला जा चुका है, अब छठे कर्मादान पर विचार करें।
___ (६) दंतवाणिज्जे (दन्त वाणिज्य)-दांतों का व्यापार करना दन्त वाणिज्य कहलाता है । पहले बतलाया जा चुका है कि वस्तु का उत्पादन न करके उसे खरीदना और खरीद कर बेचना वाणिज्य कहलाता है । दांतों के व्यापार का हिंसा से गाढ़ा संबंध है । कोई व्यापारी हाथी अादि के दांतों को खरीदने के लिए लोगों को पेशगी रकम देता है। पेशगी रकम लेने वाले दांत प्राप्त करने के लिए हाथी आदि का वध करते हैं और दांत लाकर व्यापारी को देते हैं । ऐसी स्थिति में वह व्यापारी दंत वाणिज्य नामक कर्मादान के पाप का भागी होता है।
दांत साधारणतः—अचित्त वस्तु दीख पड़ती है किन्तु दीर्घ-दृष्टि महपियो ने विचार किया और कहा-दांत अचित्त हैं, इस विचार से हे मानव ! तू