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१४८ ] भी उसमें मानते हैं । मोटर में बैठ कर बाजार में निकलने वाला व्यक्ति पैदल चलने वालों को अवज्ञा भरी दृष्टि से देखता है और अपने को उनसे ऊंचा समझता है । इससे उसके मानकषाय को पुष्टि मिलती है। वह अहंकार में चर हो जाता है।
महावीर स्वामी के भक्त प्रत्येक कार्य के औचित्य-अनौचित्य को हिसा आहिंसा की तुला पर तोलते हैं। उनकी कसौटी सर्वसाधारण की कसौटी से भिन्न प्रकार की होती है। पुराने लोग छह माह की राह के बदले वर्ष भर की राह चलने को कहते थे,क्योंकि उनका लक्ष्य पशुओं की हिंसा से बचने का रहता था । समय और शक्ति भले अधिक लग जाय किन्तु धार्मिक दृष्टि से हिंसा से बचाव हो, यह उनका आधारभूत विचार होता था। ... ... व्रती साधक न स्वयं हिंसा करता है और न ऐसा कोई कार्य करता है जिससे परोक्ष रूप में हिंसा को प्रोत्साहन मिलता हो। बहुत से लोग आज ऐसे मिलेंगे जो स्वयं बड़े-बड़े यंत्रों को भले न चलाते हों किन्तु उन. यंत्रों वाले कारखानों में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करते हैं । यह उन कारखानों को प्रोत्साहन देना है। आज हिंसा-अहिंसा का विचार नहीं किया जाता सिर्फ सस्तापन और सौन्दर्य देखा जाता है। शीघ्रता और सुविधा का ही विचार किया जाता है। परिणाम यह हुआ है कि बैलों और घोड़ों को कोई नहीं पूछता । उनकी संख्या कम होती जा रही है और मोटरों की संख्या बढ़ रही है। मोटर जल्दी दौड़ती है और दौड़ती-दौड़ती थकती नहीं है। इससे जानवरों की उपयोगिता कम हो गई है और जब किसी वस्तु की उपयोगिता कम हो जाती है तो उसकी रक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया जाता। लाभ को आशा कम होने से भैंस के पाड़े पर उतना ध्यान नहीं दिया जाता जितना पाड़ी पर दिया जाता है। पाड़े को बोझ समझ कर लोग उससे पिण्ड छुड़ा लेते हैं।
रेल और मोटर का उपयोग करने में हिंसा कम दीखती है परन्तु क्या यह बैलों और घोड़ों आदि पर दया है ? दिखने में ऐसा लगता है कि हिंसा नहीं है किन्तु इन यांत्रिक सवारियों से कितने मनुष्य, पशु, कुत्त', पक्षी आदि