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. कर्मदानं
सब्जे जीवा वि इच्छंति जीविउन मरिज्जि।
जैसे आपको अपना जीवन प्रिय और मरण अप्रिय है, उसी प्रकार संसार के प्राणियोंको जीवन प्रिय और मरण अप्रिय है। मरना कौन चाहता है ? किन्तु बहिर्ड ष्टि लोग स्वार्थ के वशीभूतहोकर इस अनुभव सिद्ध सत्य को भी विस्मृत कर देते हैं और जो अपने लिए चाहते हैं, वह अन्य प्राणियों के लिए नहीं चाहते ! वे अपने स्वल्प सुख के लिए दूसरों को दुःख के दावानल में झौंक देने में संकोच नहीं करते। इस विषम दृष्टि के कारण ही सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टियों से घोर हानि हो रही है। आज विश्व में. . जो भीषण. संघर्ष चल रहे हैं, एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के साथ टकरा रहा है, एक वर्ग दूसरे वर्ग को अपना शत्रु, समझ कर व्यवहार कर रहा है, और एक दूसरे को निगल जाने की चेष्टा कर रहा है, वह सब इसी विषम दृष्टि का परिणाम है।
जब तक यह विषमभाव दूर न हो जाय और प्राणि मात्र के प्रति समभाव जागृत्त न हो जाय तब तक संसार का कोई भी, वाद, चाहे वह समजवाद हो, साम्यवाद हो या सर्वोदय वाद हो जगत् का त्राण नहीं कर सकता, शान्ति की प्रतिष्ठा नहीं कर सकता। .. ..
अव तक संसार में शान्ति स्थापना के अनेकानेक प्रयास हुए हैं, अनेक वाद प्रचलित हुए हैं, मगर उनसे समस्या सुलझी नहीं, उलझी भले हों। समस्या का स्थायी समाधान भारतीय धर्मों में मिलता है और जैनधर्श उनमें