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प्रकार आत्मा को कर्म-रहित बनाने के लिए भी दो उपाय करने पड़ते हैं-संयम की आराधना करके नवीन कर्मों के बन्ध को रोक देना पड़ता है और तप के द्वारा पूर्वसंचित कर्मों की निर्जरा करनी पड़ती है। इन दोनों उपायों से प्रात्मा पूर्ण निष्कर्म अवस्था को प्राप्त कर लेती है। ... इन्द्रिय और मन की वृत्तियों पर नियंत्रण करके पाप के खुले द्वार को रोकना संयम कहलाता है। यह संयम धर्म भी दो प्रकार का है-समस्त पापों का निरोध श्रमण धर्म अथवा सर्वविरति संयम कहलाता है और देशतः पापों का निरोध देशविरति संयम । . 'अकरणान्मन्द करणं श्रेयः' अर्थात् कुछ भी न करने की अपेक्षा थोड़ा करना अच्छा है, इस कहावत के अनुसार पापों को सीमित रूप में लाकर जीवन को पवित्र बनाने वाला उससे अच्छा है जो पापों को बिल्कुल नहीं छोड़ता।
मनसा, वाचा, कर्मणा हिसा, असत्य और चोरी आदि पापों का त्याग करना, इन्हें दूसरों से नहीं करवाना और इन पापों को करने वाले का अनुमोदन न करना पूर्ण सामायिक का आदर्श है। जो सत्त्वशाली महापुरुष इस आदर्श तक पहुँच सकें, वे धन्य हैं । जो नहीं पहुँच सकें उन्हें उसकी ओर बढ़ना चाहिए । इस प्रादर्श की ओर जितने भी कदम आगे बढ़ सकें, अच्छा ही है। कोई व्यक्ति यदि ऐसा सोचता है कि मन स्थिर नहीं रहता, अतएव माला फेरना छोड़ देना चाहिए, यह सही दिशा नहीं है। ऐसा करने वाला कौन-सा भला काम करता है ? मन स्थिर नहीं रहता तो स्थिर रखने का प्रयत्न करना चाहिए । असफल हेने के पश्चात् पुनः सफलता के लिए उत्साहित होना चाहिए न कि माला को खूटो पर टाँग देना चाहिए। साधना के समय मन इधर-उधर दौड़ता है तो उसे शनैः शनैः रोकने का प्रयत्न करना चाहिए, किन्तु काया और वचन जो वश में हैं, उन्हें भी क्यों चपलता युक्त बनाते हो ? उन्हें तो एकाग्र • रक्खो, और मन को काबू में करने का प्रयत्न करो। यदि काया और वाणी सम्बन्धी अंकुश भी छोड़ दिया गया तो घाटे का सौदा होगा। यह सत्य है कि मन अत्यन्त चपल है। हठीला है और शीघ्र काबू में नहीं आता। किन्तु उस पर