________________
[ १२७ किया जाने वाला दुर्व्यवहार अर्थदण्ड की सीमा से बाहर निकल कर अनर्थदण्ड की सीमा में चला जाता है। .
धर्म की साधना करने वाले मुमुक्षु को बेलगाम नहीं होना चाहिए। मुमुक्षु का दर्जा वही प्राप्त कर सकता है जो अर्थ औरकाम पर अंकुश लगाता है जिसने अर्थ और काम पर अंकुश लगाना सीखा ही नहीं है, जप तप आदि साधना जिसके लिए गौण या नगण्य है, वह वास्तव में साधक नहीं कहा जा सकता। वह गिरता-गिरता कहां तक जा पहुंचेगा, नहीं कहा जा सकता। ... गुणों को छोड़ कर गुरु या परमात्मा की आराधना कितनी भी की जाय, बेकार है । ज्ञान, दर्शन और चरित्र कोई अलग देवता नहीं हैं। गुणी के बिना गुण नहीं होते और गुणों के बिना गुणी (द्रव्य) नहीं रह सकता। एक दूसरे के बिना दोनों के अस्तित्व की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जैसे हाथ, पैर, पीठ, पेट आदि अंगोपांगों का समूह ही शरीर कहा जाता है, इनसे पृथक् शरीर की कहीं सत्ता नहीं है और शरीर से पृथक् उसके अंग-उपांगों की भी सत्ता नहीं है, इसी प्रकार गुणों का समूह ही द्रव्य है और द्रव्य के अंश धर्म ही गुग हैं । परस्पर निरपेक्ष गुण या गुणो का अस्तित्व नहीं हैं। . . ..
अर्हन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु, सभी जीवद्रव्य हैं । इनकी उपासना, आराधना और भक्ति कर लेना ही पर्याप्त है। गुणों का साधन करने की क्या आवश्यकता है ? इस प्रकार की भ्रान्ति किसी को हो सकती है। किन्तु भूलना नहीं चाहिए कि अर्हन्त प्रादि गुणों के कारण ही वन्दनीय हैं । वास्तव में हम गुणी के द्वारा गुणों को ही वन्दन करते हैं । गुणों को वन्दन करने का उद्देश्य यह हैं कि हमारे चित्त में गुणों की महिमा अंकित हो जाय और हम उनका लाभ कर सकें।
जो व्यक्ति ज्ञान के बदले अज्ञान, कुदर्शन और कुचारित्र के पथ पर चल रहा है, उसकी गुरु सेवा, मुनिभक्ति और भगवदाराधना आदि सब व्यर्थ हैं। भले ही वह ऊपर-ऊपर से भक्ति का प्रदर्शन करता हो, तथापि यदि हिंसा, असत्य और मोह-ममता के मार्ग पर चल रहा है तो ऐसा ही समझना चाहिए.