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हो जाय ऐसी बात नहीं हैं । जिस वस्तु के सेवन से शरीर की यात्रा का निर्वाह न हो और उस वस्तु की भी हानि हो, उसके सेवन से भला क्या लाभ है, उदर की पूर्ति हो, शरीर का निर्वाह हो और अधिक हिंसा भी न हो, यही विचार उत्तम है । केवल थोड़ी सी देर के स्वाद-सुख के विए किसी वस्तु को खाना और हिंसा का भागी बनना श्रावक पसन्द नहीं करता। श्रावक अपने भोजन के विषय में विवेक युक्त होता है । जिसमें विवेक नहीं होता, वह खाने के विपय में कम सोचता हैं । स्वाद लोलुप न हिंसा-अहिंसा का विचार करता है न हित अहित की बात सोचता है और अन्य प्रकार के हानि-लाभों का विचार करता है।
अाज फल, मक्खन, घृत आदि पदार्थ विदेशों से सीलवन्द हो कर भारत आ रहे है । यह कैसी विडम्बना है । जिस देश में गाय को माता माना जाता हो और उसकी पूजा की जाती हो वह देश मक्खन जैसी चीज भी विदेश से मंगवाए । जो देश कृषिप्रधान गिना जाता हो उसे विदेशों की दया पर निर्भर रहना पड़े और उदरपूर्ति के लिए उनका मुख ताकना पड़े, यह भारतीय जनों के लिए क्या शोचनीय स्थिति नहीं है ?
जब देश में खाद्य पदार्थों की कमी हो तब तो खास तौर पर ध्यान रखना चाहिए कि कोई खाद्य पदार्थ विगड़ने न पावे। इससे लौकिक और धार्मिक दोनों लाभ होंगे। पर इधर कितना ध्यान दिया जा रहा हैं ? . आज लोगों की सात्त्विक वृत्ति कम हो रही है । खाद्य अखाद्य का कोई ध्यान नहीं रखा जा रहा है । मिलावट करना मामूली बात हो गई है। भाग्य से ही कोई चीज शुद्ध मिल सकती है, अन्यथा किसी में कुछ और किसी में कुछ मिलाया जा रहा है और लोग विवश होकर ऐसे पदार्थों को खरीदते हैं । दूध
और आटे.जेसी वस्तुओं का, जो शरीर एवं जीवन के लिए उपयोगी मानी गई हैं, शुद्ध रूप में प्राप्त होना कितना कठिन हो गया है, इस बात को श्राप भली भांति जानते हैं। केमिकल के नाम पर क्या-क्या मिलाया जाता है, इसका क्या पता हैं ? पेक.की हुई वस्तुओं पर भी आज भरोसा नहीं रह गया है। नभी यह स्थिति है तो पागे पाने वाले समय में क्या स्थिति होगी, कहा नहीं