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________________ आध्यात्मिक आलोक में उत्तम संस्कार डालकर, उसने एक अमर साधक उत्पन्न कर दिया । महामन्त्री शकटार राजनीति और अर्थनीति में लिप्त रहते थे । राजनीति एवं अर्थनीति में भाईचारा नहीं रहता, किन्तु अध्यात्म विद्या में सब के लिए मैत्रीभाव रहता है । लाछलदे आध्यत्मिक प्रवृत्ति वाली थी । वह पतिभक्ता, गुणवती, शीलवती और रूपवती नारी थी। वह वाणी में मिठास, मन में प्रीति और व्यवहार में कुशलता रखने वाली थी। अतिथिगण उसके मधुर व्यवहार से मुग्ध थे । वह धर्म में पति की सहायिका एक आदर्श धर्म-पलि थी । लाछलदे पति-पत्नि के सम्बन्ध को भोग का ही नहीं मानती थी। उसने हीरे, जवाहरात के आभूषणों से नहीं, बल्कि सदगुणों से अपने को अलंकृत किया था । यदि ऐसी ललनाएं भारत-भूमि में जन्म लेकर कर्तव्य के प्रति जागरुक रहें तो भावी सन्तति को सुधरने में कुछ भी देर नहीं लगे। __ आनन्द ने इच्छा परिमाण का संकल्प लेकर जीवन को जंजालों से अलग किया । क्योंकि इच्छा परिमाण के बिना परिग्रह पर नियन्त्रण असम्भव है । जंगम स्थावर या सचित्त-अचित्त रूप से परिग्रह ही मनुष्य को संसार-कान्तार में चक्कर खिलाता है या भवसागर में गोते पर गोते लगवाता है, जिसकी आकांक्षा द्रोपदी के चीर की तरह बढ़ी होती है वह आर्त एवं अशान्त हो जाता है और अशान्त मन से धर्म-साधना कभी सम्भव नहीं होती । परिग्रह की दृष्टि से मनुष्य के तीन भेद होते हैं जैसे - १-महापरिग्रही, २-अल्पपरिग्रही,३-और अपरिग्रही। अपरिग्रही वही बन सकता है, जिसकी आकांक्षाएं पूर्ण नियन्त्रित हों । ऐसा व्यक्ति कभी राजकीय अपराधों में नहीं पड़ता । ऐसा अपरिग्रही महाव्रती साधु है । दो हाथ वाला प्राणी, जब दस हाथ वाले के सदृश काम करे और काम के पीछे दिन-रात हाय-हाय करे तो भला उसे सुखशान्ति कैसे मिल सकती है? जहां परिग्रह की कोई सीमा नहीं, वहां जीवन में शान्ति नहीं और अशान्त जीवन में साधना को गति नहीं। आनन्द व्यावहारिक और आध्यात्मिक दोनों जीवन का सामन्जस्य करता है और अपने को अल्पपरिग्रही बनाता है । निश्चय ही वह चतुर व्यक्ति है जो लोक एवं परलोक दोनों को संभालता है | गृहस्थ होकर जो इस लोक में ही बिलकुल मस्त हो जाय और काम के पीछे दिन-रात का भी ज्ञान न रखे, वह जीवन की चतुराई को नहीं जानता । कहा भी है "या लोकद्वयसाधिनी तनुभृतां, सा चतुरी चातुरी।" यानि उभयलोक साधने वाली चातुरी ही वास्तविक चातुरी है ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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