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'आध्यात्मिक आतोक रहा है और उसी अनुपात में व्याधियां भी बढ़ती जा रही हैं । अगर मनुष्य प्रकृति के नियमों का प्रामाणिकता के साथ अनुसरण करे और अपने स्वास्थ्य की चिन्ता रखे तो उसे डॉक्टरों की शरण में जाने की आवश्यकता ही न हो । डॉक्टरों और वैद्य-हकीमों से और इनकी अप्राकृतिक कृत्रिम औषधियों से त्रस्त होकर कुछ बुद्धिजीवी एवं साहसी व्यक्तियों ने इस दिशा में निरन्तर खोज की-उनकी खोजों ने प्रमाणित कर दिया है कि पुरातन काल में हमारी जो खान-पान एवं रहन-सहन की सात्विक, नैसर्गिक एवं प्राकृतिक पद्धत्ति थी वह उत्तम थी।
आज इन अन्वेषियों ने पुनः स्थापना की है कि यह शरीर स्वयं अपना डॉक्टर वैद्य या हकीम है-इसे किसी बाहरी डॉक्टर, वैद्य, हकीम की आवश्यकता नहीं है । जो कुछ हम खाते हैं या पीते हैं शरीर अपनी पाचन-क्रिया द्वारा उनका रस बना कर अपने शरीर का अंग बना लेता है । जो अंग नहीं बन सकता उन विजातीय अंशों को यह शरीर टट्टी-पेशाब, पसीना आदि माध्यमों द्वारा बाहर निकाल देता है । इसके बाद भी अगर कोई विजातीय पदार्थ शरीर में रह गया तो शरीर पाचन क्रिया बन्द करके उस विजातीय द्रव्य को शरीर से बाहर निकालने का असाधारण प्रयत्न करता है-जुकाम, बुखार आदि के द्वारा । ऐसे समय में बुद्धिमान मानव को चाहिये कि शरीर के इस प्रयत्न को समझे और उसके इस प्रयत्न में उसकी मदद करे । प्रकृति का संकेत होता है और जुकाम बुखार में व्यक्ति को भूख भी नहीं लगती क्योंकि शरीरं उस अवस्था में पाचन क्रिया बन्द कर के शरीर की सफाई में लग जाता है । शरीर के इस संकेत को समझ कर व्यक्ति को तत्काल भोजन बन्द . करके लंघन द्वारा शरीर की सफाई की क्रिया में मदद करनी चहिये । पर व्यक्ति लंघन करने के स्थान पर और खाता जाता है और शरीर के सफाई करने के प्रयत्न को निष्फल करता जाता है । दवाईयों के डंडे मार-मार कर प्रकृति के प्रयत्नों में दखल देता जाता है।
पर जब तक विजातीय द्रव्य शरीर से नहीं निकलेगा और शरीर में जीवनी शक्ति विद्यमान है शरीर उन विजातीय द्रव्यों को निकाल कर ही दम लेगा । ऐसा करते-करते जीवनी शक्ति जब चुक जाएगी तब कोई डॉक्टर वैद्य या हकीम और उनकी औषधियां कितने ही प्रयत्न करे वे निरर्थक होगे। .
इसी तरह का उद्बोधन प्रभु महावीर ने भी मानव को अपनी अन्तिम देशना में भी दिया है । इसी से इसका महत्त्व स्वतः प्रकट है । उत्तराध्ययन के १९वें अध्ययन में इसे विस्तार से समझाते हुए अन्त में कहा है
मिग चारियंचरिस्सामि, सव्व दुक्ख विमोक्खमिं । (गाधा-८५)