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________________ 532 आध्यात्मिक आलोक (१५) हिंसा (१) प्रेम (७) क्रीड़ा और (१८) हास्य । इन दोषों का अभाव हो जाने से आत्मिक गुणों का आविर्भाव हो जाता है । अतएव जिस आत्मा में पूर्ण ज्ञान और पूर्ण वीतरागता प्रकट हो गए हों, उसे ही देव कहते हैं । आदिनाथ, महावीर, राम, महापद्म आदि नाम कुछ भी हों, उनके गुणों में अन्तर नहीं होता । नाम तो संकेत के रूप में हैं । अठारह दोष दूसरी तरह से-१. अज्ञान, २. निद्रा ३-७ दानादि पांच अन्तराय ८. मिथ्यात्व ९, अव्रत १०. राग, ११. द्वेष १२. हास्य १३. रति १४. अरति १५, भय १६ शोक १७. जुगुप्सा १८. वेद (काम) इस प्रकार हैं । असल में तो गुण ही वन्दनीय हैं। जिसमें पूर्वोक्त दोषों के आत्यन्तिक क्षय से सर्वज्ञता एवं . वीतरागता का पूर्ण विकास हो गया है, उसका नाम कुछ भी हो, देव के रूप में वह वन्दनीय है। . गुरु वह है जिसने विशिष्ट तत्व ज्ञान प्राप्त किया हो और जो आरम्भ तथा परिग्रह से सर्वथा विरत हो गया हो । पापयुक्त कार्य-कलाप 'आरम्भ कहलाता है और बाह्य पदार्थों का संग्रह एवं तज्जनित ममता को 'परिग्रह' कहते हैं । जिसे आत्मतत्त्व का समीचीन ज्ञान नहीं है, उसे शोधन करने की साधना का ज्ञान नहीं है, जो संसार की झंझटों से ऊब कर या किसी के बहकावे में आकर या क्षणिक. भावुकता के वशीभूत होकर घर छोड़ बैठा है, वह गुरु नहीं है। यों तो ज्ञान अनन्त है, किन्तु गुरु कहलाने के लिए कम से कम इतना तो जानना चाहिए कि आत्मा का शुद्ध स्वरूप क्या है ? आत्मा किन कारणों से कर्म बद्ध होती है ? बन्ध से छुटकारा पाने का उपाय क्या है । धर्म-अधर्म, हिंसा-अहिंसा एवं हेय उपादेय क्या है ? जिसने जड़ और चेतन के पार्थक्य को पहचान लिया है, पुण्य-पाप के भेद को जान लिया है और कृत्य-अकृत्य को समझ लिया है, वह गुरु कहलाने के योग्य है बशर्ते कि उसका व्यवहार उसके ज्ञान के अनुसार हो :- अर्थात् जिसने समस्त हिंसाकारी कार्यों से निवृत्त होकर मोह-माया को तिलांजलि दे दी हो। जो ज्ञानी होकर भी आरम्भ-परिग्रह का त्यागी नहीं है वह सन्त नहीं है। अंबड़ नामक एक तापस था । वह सात सौ तापसों का नायक था | गेरुआ वस्त्र पहनता था । वह भगवान महावीर के सम्पर्क में आया । उसने वस्तुतत्त्व को समझ लिया । उसका कहना था जब तक मैं पूर्ण त्यागी न बन जाऊँ तब तक दुनिया से वन्दन करवाने योग्य नहीं हूँ। कम करूँ और अधिक दिखलाऊँ तो क्या लाभ ? ऐसा करने से तो आत्मा का पतन होता है । वह कन्द मूल फल खाता था, किन्तु उसमें हिंसा है ऐसा भी समझता था । वह मानता था कि कन्दमूल फल भक्षण में हिंसा अवश्य है । अंबड़. जल से दो बार स्नान करता था, मगर .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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