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________________ आध्यात्मिक आलोक 525 दुर्बलता छिपी हो तो वह भी दूर हो जाती है । किसी नाजुक प्रसंग के आने पर भी उस संकल्प से विचलित न होने में सहायता मिलती है । अपने मन में ही व्रत पालन का विचार कर लेने से वह दृढ़ता नहीं उत्पन्न होती और समय पर विचलित होने की संभावना बनी रहती है। अतएव जो भी व्रत अंगीकार किया जाय उसे गुरु की साक्षी से ग्रहण करना ही श्रेयस्कर है । कदाचित ऐसा योग न हो तो भी धर्मनिष्ठ बन्धुओं के समक्ष अपने संकल्प को प्रकट कर देना चाहिये । आनन्द सोचता है कि मैं अत्यन्त सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे साक्षात् जिनेन्द्र देव तीर्थंकर के चरणों में अपने जीवनोत्थान एवं आत्मकल्याण के लिए व्रतग्रहण का सुअवसर प्राप्त हो सका । यह सोच कर उसे अपूर्व प्रमोद हुआ । उसने निश्चय किया कि मैं अपने इस प्रमोद को अपने तक ही सीमित नहीं रखूगा । मैं अपने मित्रों और बन्धुजनों को भी इस आनन्द का भागी बनाऊंगा । मैं उनके जीवन को भी सफल बनाने में सहायक बनूंगा । साधक स्वयं ग्रहणीय बातों को गुरुजनों से ग्रहण करके दूसरों में प्रचारित करता है । उसे वह धर्म की सच्ची प्रभावना मानता है । सच्चा साधक उन बातों का संरक्षण और संवर्द्धन करता है। यदि साधक सद्विचारों को अपने तक ही सीमित रखता है और उन्हें प्रचारित नहीं करता तो वे विचार वृद्धि नहीं पाते । भारत की अनेक विद्याएं और औषधियाँ इसी कंजूसी के फलस्वरूप नष्ट हो गई और हो रही धर्म सीमित और अधर्म विस्तृत हो जाता है तो वासना का दौर शुरु होता है । वासना सहज प्रवृत्ति है । मनुस्मृति में कहा है प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला । प्रवृत्ति प्रत्येक प्राणी के लिए सहज बनी हुई है, बच्चों को खुराक चबाने की कला नहीं सिखलानी पड़ती । भूख मिटाने के लिए खाना चाहिए इस उपदेश की आवश्यकता नहीं होती । बच्चे नौजवान होकर उदर-पूर्ति के साधन आवश्यकता होने पर जुटा लेते हैं । नौजवानों को सुन्दर वस्त्र पहनने की शिक्षा नहीं दी जाती। ये सब बातें देखादेखी आप ही सीख ली जाती हैं। सदविचारों एवं धर्म को सुरक्षित रखने के लिए तथा देश की संस्कृति की रक्षा करने के लिए शस्त्रधारी सैनिकों से काम नहीं चलता । इसके लिए शास्त्रधारी सैनिक चाहिए । सन्त-महन्तों के नेतृत्व में शास्त्रधारी सैनिक देश की पवित्र संस्कृति की रक्षा करते थे । सन्तों को सदा चिन्ता रहती थी कि हमारी पावन और
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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