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________________ 522 आध्यात्मिक आलोक जिसने धर्म के मर्म को पहचान लिया है, उसकी दृष्टि निरन्तर आत्मतत्व पर टिकी रहती है । वह कोई भी कार्य करे मगर आत्मा को विस्मत नहीं करता । वह इस तथ्य को पूरी तरह हृदयंगम कर लेता है कि मानव-जीवन का सर्वोपरि साध्य आत्महित है । अगर हम आत्मा के हिताहित का विचार न कर सके, आत्मोत्थान और आत्मपतन के कारणों को न समझ सके तो हमारी विचार-शक्ति की सार्थकता ही क्या हुई ? जड़-जगत के विचार में जो इतना मग्न हो जाता है कि आत्मा का विचार ही नहीं कर पाता, उसका विचार चाहे जितना गंभीर और सक्ष्म क्यों न हो, सार्थक नहीं है । विवेकवान् व्यक्ति के लिए तो आत्मा के स्वरूप का चिन्तन और स्मरण करके निरावरण दशा को प्राप्त करने का प्रयत्न करना ही उचित है । यही धर्म है, इस सम्बन्ध की कथा धर्म कथा कहलाती है। अशुभ भाव से जब तक मन नहीं हटेगा तब तक शुभ कार्य में मन नहीं लगेगा | अशुभ फलों का कटुक फल बता कर तथा शुभ कर्मों का लाभ बतला कर धर्म के प्रति प्रीतिमान बनाया जाता है । जब तक बच्चे के अन्तःकरण में पढ़ाई के प्रति प्रीति नहीं उत्पन्न होती तब तक दण्ड आदि का भय उसे दिखलाया जाता है । किन्तु जब बालक स्वयं अन्तःप्रेरणा से ही पढ़ाई में रुचि लेने लगता है और पढ़ाई में उसे आनन्द का । अनुभव होने लगता है तो उसे किसी प्रकार का भय दिखलाने की आवश्यकता नहीं होती । वह पढ़ाई के बिना रह नहीं सकता। सेठों को दुकानदारी में प्रीति होती है। दुकानदारी के फेर में पड़ कर वे भोजन भी छोड़ देते हैं। पाप के कटुक फल और उससे उत्पन्न होने वाली विषम यातनाएँ बतला कर लोगों को पाप से मोड़ने की आवश्यकता है। पापाचार न केवल परलोक में ही वरन् इस लोक में भी दुःखों का कारण होता है । इस तथ्य को भगवान महावीर के मुख से जान कर श्रमणोपासक आनन्द ने बारह व्रतों को अंगीकार किया । तत्पश्चात् मृत्यु को सुधारने के लिए पांच दूषण से बचने का उपाय प्रभु ने आनन्द को बतलाया । जब अन्तिम समय आया दिखाई दे तब समाधिमरण अंगीकार किया जाता है। समाधिमरण अंगीकार करने से पहले संलेखना की जाती है । संलेखना में सब प्रकार के कषायों को क्षीण करना होता है । 'सम्यक्काय कषाय लेखना सल्लेखना' अर्थात् सम्यक् प्रकार से काय और कषायों को कुश करना सल्लेखना या संलेखना है। इस प्रकार जब बाहर से काय को और भीतर से कषाय को कृश कर दिया जाता है तब साधक समाधिमरण को अंगीकार करता है । समाधिमरण संसार से सदा के लिए छुटकारा पाने का साधन है । कहा भी है
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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