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________________ 498 आध्यात्मिक आलोक (५) परव्यपदेश : यह वस्तु मेरी नहीं पराई है, इस प्रकार का बहाना करना भी अतिचार है । यह मलिन भावना का द्योतक है । गृहस्थ को सरल भाव से, कर्मनिर्जरा के हेतु ही दान देना चाहिए। उसमें किसी भी प्रकार की दुर्भावना अथवा लोकैषणा नहीं होनी चाहिए । तभी दान के उत्तम फल की प्राप्ति होती है । एक कवि ने कहा है बहु आदर बहु प्रिय वचन, रोमांचित बहु मान । - देह करे अनुमोदना, ये भूषण परमान ।। रत्नत्रय की साधना करने वाले के प्रति गहरी प्रीति एवं आदर का भाव होना चाहिए । साधु का घर में पांव पड़ना कल्पवृक्ष का आँगन में आना है । ऐसा समझ कर श्रद्धा और भक्ति के साथ निर्दोष पदार्थों का दान करना चाहिए । जो अनारंभी जीवन यापन कर रहा है वह गुणों की ज्योति को जगाता है । उसे आदर दिया ही जाना चाहिए। . अतिथि संविभाग व्रत शिक्षाव्रतों में अन्तिम और बारह व्रतों में भी अन्तिम है। इन सब व्रतों के स्वरूप एवं अतिचारों को भलीभांति समझकर पालन करने वाला श्रमणोपासक अपने वर्तमान जीवन को एवं भविष्य को मंगलमय बनाता है । ___ आनन्द सौभाग्यशाली था कि उसे साक्षात् तीर्थंकर भगवान महावीर का समागम मिला । किन्तु इस भरत क्षेत्र में, महाविदेह की तरह तीर्थंकर सदा काल विद्यमान नहीं रहते हैं । आज तीर्थंकर नहीं हैं मगर तीर्थंकर की वाणी विद्यमान है । उनके मार्ग पर यथाशक्ति चलने वाले उनके प्रतिनिधि भी मौजूद हैं । वीतराग के प्रतिनिधियों की वाणी से भी अनेकों ने अपना जीवन ऊँचा उठा लिया । वीतराग न हों, उनके प्रतिनिधि भी न हों, फिर भी उनकी वाणी का अध्ययन करने वालों में से हजारों उसके अनुसार आचरण करके तिर गए । आज भी उस वाणी का चिन्तन-मनन करने वाले अपना कल्याण कर सकते हैं। वीतराग के उपदेश का सुधाप्रवाह दीर्घकाल तक प्रवाहित होता रहे और भव्य जीव उसमें अवगाहन करके अपने निर्मल स्वरूप. को प्राप्त कर सकें, जन्म-जरा-मरण के घोर सन्ताप को शान्त कर सकें, और अपनी आन्तरिक प्यास बुझा सकें, इस महान् और प्रशस्त विचार से प्रेरित होकर आचार्यों ने उस वाणी का संकलन, संग्रह और रक्षण किया । भगवान् महावीर की वाणी सुरक्षित रही तो वह लोगों को कल्याणमार्ग की ओर प्रेरित करती रहेगी | माध्यम कोई न कोई मिल ही जाएगा । इसी उच्च भावना से मुनियों ने उसके संकलन का भरसक प्रयत्न किया।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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