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________________ 486 आध्यात्मिक आलोक लेना चक्षरिन्द्रिय का दमन है, ऐसी किसी-किसी की समझ है। किन्तु भगवान महावीर इसे इन्द्रियदमन नहीं कहते । अपने-अपने विषय को इन्द्रियां भले ग्रहण करती रहें मगर उस विषय ग्रहण में राग द्वेष के विष का सम्मिश्रण नहीं होना चाहिए । किसी वस्तु को देख लेना ही पाप नहीं है, किन्तु उस वस्तु को हम अपने मन से सुन्दर अथवा असुन्दर रूप देकर उसके प्रति रागभाव और द्वेषभाव धारण करते हैं, यह पाप है। किन्तु यहां एक बात ध्यान में रखनी होगी । उक्त कथन का आशय यह नहीं समझना चाहिये कि इन्द्रियों को स्वच्छन्द छोड़ दिया जाय और यह मान कर कि राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होने दिया जायगा, उन्हें किसी भी विषय में प्रवृत्त होने दिया जार्य | राग-द्वेष की परिणति निमित्त पाकर उभर आती है। अतएव जब तक मन पूर्ण रूप से संयत न बन जाए, मन पर पूरा काबू न पा लिया जाय, तब तक साधक के लिए यह आवश्यक है कि वह राग-द्वेष आदि विकारों को उत्पन्न करने वाले निमित्तों से भी बचे । क्या हमारे मन में इतनी वीतरागता आ गई है कि उत्तम से उत्तम भोजन करते हुए भी लेशमात्र प्रीति का भाव उत्पन्न न हो ? क्या हम ऐसा समभाव प्राप्त कर चुके हैं कि खराब से खराब भोजन पाकर भी अप्रीति का अनुभव न करें ? क्या मनोहर और वीभत्स रूप को देखकर हमारा चित्त किसी भी प्रकार के विकारों का अनुभव नहीं करना ? इत्यादि प्रश्नों को अपनी आत्मा से पूछिये । यदि आपकी आत्मा सच्चाई के साथ उत्तर देती है कि अभी ऐसी उदासीन भावना नहीं आई है तो आपको इन्द्रियों के विषयों के सेवन से भी बचना चाहिए और विकारवर्धक निमित्तों से दूर रहना चाहिए । साधारण साधक में इस प्रकार का वीतराग भाव उदित नहीं हो पाता । इसी कारण आगम में "चित्तभित्तिं न निज्झाए' अर्थात् दीवार पर बने हुए विकारजनक चित्रों को भी न देखे, इस प्रकार के शिक्षा वाक्य दिये गए हैं। . पौषधव्रत में भी विकार विवर्धक विषयों से बचने की आवश्यकता है । साधना जब एक धारा से चले तब उसमें पूर्ण-अपूर्ण का प्रश्न नहीं उठता, किन्तु मानसिक दुर्बलता ने प्रभाव डाला तो पूर्ण और अपूर्ण का भेद उपस्थित हो गया । पूर्वकाल में सबल मन वाले साधक थे, अतएव उनका तप निर्झर रूप में चलता था । अभी तक के शास्त्रों के आलोडन से इसमें कहीं अपवाद दृष्टिगोचर नहीं हुआ । किन्तु पौषधव्रत में विभाग करने को आवश्यकता जब हुई तो आचार्यों ने भी उसे दो भागों में विभक्त कर दिया-देशपौषध और सर्वपौषध । देश-आहार त्याग और पूर्ण-आहार त्याग नाम प्रदान किये गये । देशपौषध को दशम पौषध कहा जाने लगा । दशम पौषध का क्षेत्र काफी बड़ा है ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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