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[ ७३ ] पौषधव्रत के अतिचार
'अहिंसा' धर्म का प्रधान अंग है और संसार के समस्त धर्म अथवा सम्प्रदाय एक स्वर से अहिंसा की महिमा को स्वीकार करते हैं । यद्यपि यह सत्य है कि जब तक जीव और अजीव की पूरी जानकारी न हो जाय तब तक अहिंसा के परिपूर्ण स्वरुप को समझना और उस पर आचरण करना संभव नहीं है। इसके लिए विशिष्ट लोकोत्तर ज्ञान की अपेक्षा रहती है । तथापि जिसने जिस रूप में जीवतत्व को पहचाना, उसी रूप में अहिंसा का समर्थन और अनुमोदन किया है । हिंसा को धर्म मानने वाला कोई सम्प्रदाय या पंथ नहीं है । जो हिंसा के विधायक हैं वे भी उस हिंसा को अहिंसा समझ कर ही उसका विधान करते हैं ।
. जैन धर्म के प्रवर्तक सर्वज्ञ थे, अतएव उन्होंने सूक्ष्म और स्थूल, दृश्य और अदृश्य, सभी प्रकार के जीवों को समझ कर पूर्ण अहिंसा का उपदेश दिया है । श्रीमद् आचारांग सूत्र के अवलोकन से यह स्पष्ट हो जाता है । इस सूत्र में पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक के जीवों की रक्षा करने को मुनिधर्म बताया है, इसे अत्यन्त सुन्दर और सुगम ढंग से समझाया गया है । चलते-फिरते त्रस जीवों की अहिंसा का विधान तो है ही।
____ अहिंसा का जो उपदेश दिया गया है, उसका प्रधान उद्देश्य आत्म-शुद्धि है । जब तक अन्तःकरण में पूर्णरूपेण मैत्री और करुणा की भावना उदित नहीं होती तब तक आत्मा में कुविचारों की कालिमा बनी रहती है और शुद्ध आत्मस्वरूप प्रकट नहीं होता । उस कालिमा को हटाकर आत्मा को निर्मल बनाना और आत्मा की सहज स्वाभाविक शक्तियों को प्रकाश में लाना, यही अहिंसा के आचरण का लक्ष्य है।
साधारण जन हिंसा के स्थूल रूप को अर्थात् जीव की घात को ही हिंसा समझते हैं, परन्तु ज्ञानी जनों का कथन है कि हिंसा का स्वरूप यहीं तक सीमित नहीं है । आत्मिक विशुद्धि का विघात करने वाली प्रत्येक प्रवृत्ति हिंसा है । इस दृष्टिकोण