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________________ 471 आध्यात्मिक आलोक टिक नहीं सकी । तत्काल ही विचारों की लगाम विवेक ने थाम ली । प्रभु की वाणी उन्हें स्मरण हो आई पुरिसा ! तुममेव तुम मित्त, किं बहिया मित्तमिच्छसि। बस, उन्होंने सोचा-'प्रभु ने स्वावलम्बन की शिक्षा देने के लिए मुझे अपने से पृथक् किया है । निर्वाण जाते-जाते भी वे मुझे मूक शिक्षा दे गए हैं । अब उसी शिक्षा का आधार लेकर मुझे अपनी आत्मा की ही उपासना करनी चाहिए । बाहर की ओर देखने वाली दृष्टि को अन्दर की ओर मोड़ देना चाहिए।' और उसी समय गौतम स्वामी की दृष्टि आत्मोन्मुख हो गई । बाहर के समस्त आलम्बनों का जैसे सद्भाव ही न रहा । इस प्रकार जब उनकी आत्मा अपने स्वरूप में निमग्न हो गई तो तत्काल अनन्त ज्ञानालोक आविर्भूत हो गया और वे अपने आराध्य के समान बन गए । एक कवि ने कहा है चेतन ! तू ही तारसी, तू परमेश्वर रूप । प्रभुजी के गुण गावता, प्रकटे आत्मस्वरूप ।। गौतम ने आत्मा के परमेश्वर रूप का चिन्तन किया । जो सिद्धि तीस वर्षों की साधना में उन्हें प्राप्त नहीं हुई थी, वह महावीर के निर्वाण के पश्चात् स्वस्वरूप के चिन्तन से स्वल्पकाल में ही प्राप्त हो गई। उनके अन्तस् से ध्वनि निकली-रंज किसका? दुःख किसका ? वियोग किसका ? किसी भी परपदार्थ के साथ आत्मा का योग नहीं होता तो वियोग कैसा ? इस चिन्तन से उनकी विकलता दूर हो गई। जो वस्तु अलग हो सकती है, वह आत्मा की नहीं है । जो आत्मीय है वह आत्मा से पृथक् कदापि नहीं हो सकता । जिसका वियोग होता है, वह सब पर पदार्थ है जिसे आत्मा राग-भाव के कारण अपना समझ लेता है, यह समझ मिथ्या है । जब यह मिथ्या धारणा दूर हो जाती है तब सच्चा प्रकाश आत्मा में उत्पन्न होता है-हे चेतन ! तू स्वयं ही अपने को तारने वाला है, तू ही परमात्मा है । परमात्मा का सहारा लेकर उनके स्वरूप का चिन्तन करने से निज स्वरूप प्रकट होता है । निज गुणों को प्रकट करने में परमात्मस्वरूप का चिन्तन एवं गुणगान निमित्त होता है । इससे शुद्ध स्वरूप पर जो पर्दा पड़ा है वह दूर हो जाता है । इस प्रकार एक भास्कर (महावीर) अस्त हुआ और दूसरे भास्कर का उदय हुआ । गौतम स्वामी केवलज्ञानी हो गए । उनके चारों ज्ञान केवलज्ञान में उसी प्रकार विलीन हो गए जैसे हाथी के पैर में सबके पैर समा जाते हैं । अनन्त ज्योति
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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