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________________ 468 आध्यात्मिक आलोक निर्वाण से पूर्व महावीर स्वामी ने पौद्गलिक भावों का परित्याग कर दिया, आहार-पानी का त्याग कर दिया और कर्मपुदगलों को निकाल देने की साधना बढ़ा दी। वे दिन और रात्रि में सारे समय देशना देते रहे । अन्तिम समय में उनके प्रशममय प्रवचन की धारा बह रही थी। सबके लिए उस धारा में अवगाहन करने की छूट थी। उस दिन राजा चेटक ने पौषध व्रत की आराधना की । मल्ली और लिच्छवी राजाओं ने भी, जिनकी संख्या अठारह थी, पौषध व्रत अंगीकार किया । उन्हें. परमप्रभु की अन्तिमकालिक सेवा का सौभाग्य मिला । अन्तिम समय में, स्वाति नक्षत्र के योग में कार्तिकी अमावस्या के दिन प्रभु महावीर निर्वाण पद को प्राप्त हुए। जिन्हें उस समय प्रभु की सेवा का अवसर मिला, वे धन्य हैं। प्रश्न हो सकता है-वीतराग की सेवा किस प्रकार की जा सकती है ? वीतराग के निकट पहुंच कर उनकी इच्छा के विपरीत कार्य करना सेवा नहीं है। उनके गुणों के प्रति निष्कपट प्रीति होना, प्रमोदभाव होना और उनके द्वारा उपदिष्ट सम्यक् ज्ञान दर्शन और चारित्र के मार्ग पर चलना ही वीतराग की सच्ची सेवा है । मगर आज परिस्थिति यह है कि पूजक अपने पूज्य को अपने ही रंग ढंग में ढालना चाहता है । जिसकी जैसी दृष्टि या रुचि है, वह उसी के अनुरूप देव के स्वरूप की कल्पना कर लेता है। राजस्थान, बंगाल और उत्तर प्रदेश में ठाकुरजी का रूप अलग-अलग प्रकार का मिलेगा । राजस्थानी लोग सीता को घाघरा पहनाएँगे तो बंगाली और बिहारी भक्त साड़ी से सुशोभित करेंगे । सीता वास्तव में किस वेश में. रहती थी, इस तथ्य को जानने का परिश्रम किसी को नहीं करना है । जैनों में श्वेताम्बरों के महावीर अलग प्रकार के होंगे और दिगम्बरों के महावीर अलग प्रकार के। महावीर की आत्मा को पहचानना और उससे प्रेरणा प्राप्त करना ही वास्तव में महावीर की पूजा है | साम्प्रदायिक रंग में रंगने से महापुरुषों का रूप बदल जाता है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यह खींचतान जानकार लोगों में अधिक है, अज्ञानी कहे जाने वाले लोगों में नहीं है । यदि उपासना का मूल आधार गुण मान लिया जाय तो सारी विडम्बनाएँ समाप्त हो जाएँ । 'गुणा पूजास्थानम्' इस उक्ति को कार्यान्वित करने की आवश्यकता है । महावीर में अनन्त ज्ञान, दर्शन एवं वीतरागता है । जगत् के प्रत्येक प्राणी पर उनका समभाव है । इन गुणों को अगर हम आदर्श मानकर भगवान् की उपासना करें और उन्हें अपने जीवन में विकसित करने का प्रयत्न करें तो किसी प्रकार का संघर्ष ही उत्पन्न न हो । इन गुणों की प्राप्ति के लिए जो साधना करेगा उसकी साधना निराली ही होगी। .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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