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________________ 466 आध्यात्मिक आलोक होती है, उसकी शक्तियों का - गुणों का पूर्ण विकास हो जाता है और आत्मिक शक्तियों के पूर्ण विकास की अवस्था ही परमात्मदशा कहलाती है, अनादिकाल से कर्मकृत आवरण जब तक विद्यमान हैं और वे आत्मा के स्वाभाविक गुणों को आवृत्त किये हुए हैं तब तक आत्मा आत्मा है । ज्ञान और क्रिया के समन्वय से जब आवरणों को छिन्न-भिन्न कर दिया जाता है और निर्मल, सहज स्वाभाविक स्वरूप प्रकट हो जाता है तो वही आत्मा परम आत्मा-परमात्मा बन जाता है । जो आत्मा परमात्मा के पद पर पहुंच गई है, उसका स्मरण करने से हमें भी उस पद को प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है और हम उस पथ पर चलने को अग्रसर होते हैं जिस पर चलने से परमात्मदशा प्राप्त होती है। अतएव आज हम उन परमपावन, परमपिता, परम मंगलधाम महावीर स्वामी का जो स्मरण करते हैं, उसमें कृतज्ञता की भावना के साथ-साथ स्वात्मस्वरूप का स्मरण भी सम्मिलित है। __ महाप्रभु महावीर के प्रति हम कितने कृतज्ञ हैं । संसार के दुःख-दावानल से झुलसते हुए, अनन्त सन्ताप से सन्तप्त, मोहममता के निविड़ अन्धकार में भटकते और ठोकरें खाते हुए, जन्म जरा मरण की व्याधियों से पीड़ित एवं अपने स्वरूप से भी अनभिज्ञ जगत् के जीवों को जिन्होंने मुक्ति का मार्ग प्रदर्शित किया, सिद्धि का समीचीन सन्देश दिया, ज्ञान की अनिर्वचनीय ज्योति जगाई, उनके प्रति श्रद्धा निवेदन करना हमारा सर्वोत्तम कर्त्तव्य है । भगवान् ने अहिंसा का अमृत न पिलाया होता और सत्य की सुधा-धारा प्रवाहित न की होती तो इस जगत् की क्या स्थिति होती ? मानव दानव बन गया होता, धरा ने रौरव का रूप धारण कर लिया होता । भगवान् ने अपनी साधनापूत दिव्य-ध्वनि के द्वारा मनुष्य की मूर्छित चेतना को संज्ञा प्रदान की, दानवी वृत्तियों का शमन करने के दिए दैवी भावनाएँ जागृत की और मनुष्य में फैले हुए नाना प्रकार के भ्रम के सघन कोहरे को छिन्न-भिन्न करके विमल आलोक की प्रकाशपूर्ण किरणें विकीर्ण की। प्रश्न उठ सकता है कि संसार का अपार उपकार करने वाले भगवान के निर्वाण को 'कल्याणकक्यों कहा गया है ? निर्वाण दिवस में आनन्द क्यों मनाया जाता है ? इसका उत्तर यह है कि लोकोत्तर पुरुष दुसरे पामर प्राणियों जैसे नहीं होते। वे आते समय प्रेरणा लेकर आते हैं और जाते समय भी प्रेरणा देकर जाते हैं। अतएव महापुरुषों का जन्म भी कल्याणकारी होता है और निर्वाण भी ।। आस्तिकजन आत्मा को अजर, अमर और अविनाशी मानते हैं | आत्मा एक शाश्वत तत्त्व है । न उसका उत्पाद होता है व विनाश । सकर्म अवस्था में वह
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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