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________________ 451 आध्यात्मिक आलोक मन में बड़ी शक्ति है । उसके प्रशस्त व्यापार से स्वर्ग मोक्ष और अप्रशस्त व्यापार से नरक तैयार समझिए। कहा है मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः । किसी जलाशय का पानी व्यर्थ बहाया जाय तो वह कीड़े उत्पन्न करता है और संहारक बन जाता है और यदि उसी जल का उचित उपयोग किया जाय तो अनेक खेत लहलहाने लगते हैं । मानसिक शक्ति का भी यही हाल है । मानसिक शक्ति के सदुपयोग से अलौकिक शान्ति प्राप्त की जा सकती है । अतएव मन को काबू में करना साधना का प्रधान अंग है । मन में गर्व, क्रोध, कामना, भय आदि को स्थान देकर यदि कोई सामायिक करता है तो ये सब मानसिक दोष इसे मलिन बना देते हैं । पति और पत्नी में या पिता और पुत्र में आपसी रंजिश पैदा हो जाय तब रुष्ट होकर काम न करके सामायिक में बैठ जाना भी दूषण है । अभिमान के वशीभूत होकर या पुत्र, धन, विद्या आदि के लाभ की कामना से प्रेरित होकर सामायिक की जाती है तो वह भी मानसिक दोष है । अप्रशस्त मानसिक विचारों के कारण सामायिक से आनन्द लाभ के बदले उलटा कर्म बन्ध होता है । अतएव साधक को इस ओर से सावधान रहना चाहिए और प्रसन्न एवं शान्तचित्त से समभाव को जागृत करने के उद्देश्य से, वीतराग भाव की वृद्धि के लिए तथा कर्मनिर्जरा के हेतु ही सामायिक की आराधना करनी चाहिए। (२) वयदुप्पणिहाणे-सामायिक का दूसरा दोष है वचन का दुष्प्रणिधान अर्थात् वचन का अप्रशस्त व्यापार | सामायिक के समय आत्मचिन्तन, भगवत् स्मरण या स्वात्मरमण की ही प्रधानता होती है, अतएव सर्वोत्तम यही होगा कि मौन भाव से सामायिक का आराधन किया जाय । यदि आवश्यकता हो और बोलने का अवसर आए तो भी संसार-व्यवहार सम्बन्धी बातें नहीं करनी चाहिए । हाट, हवेली या बाजार सम्बन्धी बातें न करें, काम कथा और युद्ध कथा से सर्वथा बचते रहें । कुटुम्ब-परिवार के हानि-लाभ की बातें करना भी सामायिक को दूषित करना है । भगवान् महावीर ने कहा-"मानव ! सामायिक आत्मोपासना का परम साधन है । अतएव सामायिक के काल में अपनी आत्मा के स्वरूप को निहार, आत्मा के अनन्त अज्ञात वैभव को पहचानने का प्रयत्न कर, भेद-विज्ञान की अलौकिक ज्योति को वृद्धिंगत कर, मन की एकाग्रता के साथ वचन को गोपन कर और सम्पूर्ण काययोग अपनी ही आत्मा में समाहित कर ले । इतना न हो सके तो कम से कम वचन का दुष्प्रणिधान तो मत कर । ऐसा बोल जो हित, मित, तथ्य, पथ्य और निर्दोष हो ।" सामायिक के समय परमात्मा की स्तुति और शान्त पठन में वाणी का उपयोग किया जा सकता है । ऐसा करना वचन का सुप्रणिधान है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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