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________________ आध्यात्मिक आलोक 437 जो महापुरुष आत्मोत्थान के सोपानों को पार करते-करते पूर्ण सुख और शान्ति की मजिल तक जा पहुँचे, उन्होंने संसार के दुःख पीड़ित प्राणियों के उद्धार के लिए, अनन्त करुणा से प्रेरित होकर स्वानुभूत एवं आचीर्ण मार्ग का अपनी वाणी द्वारा प्रकाश किया । उनकी वही वाणी कालान्तर में लिपिबद्ध हुई जो श्रुत या आगम के नाम से आज भी हमारे समक्ष है । इस प्रकार श्रुत का महत्व इस बात में है कि उसमें प्रतिपादित तथ्य साधना में सफलता प्राप्त करने वाले महान् ऋषियों के आचीर्ण प्रयोग हैं, अनुभव के सार हैं तथा गम्भीर एवं दीर्घकालीन चिन्तन के परिणाम हैं। वीतराग पुरुषों ने यह समझकर कि संसार के जीवों को शान्ति प्रदान करने की आवश्यकता है, शास्त्र के द्वारा शान्ति का मार्ग प्रदर्शित किया है । उन्होंने सन्देश दिया है कि अशान्ति का कारण दुःख है । हिंसा और अनावश्यक रूप से बढ़ी हुई आवश्यकताएं कम हो जाएं तो दुःख कम हो जाएगा । अतएव उन्होंने हिंसा और परिग्रह से दूर रहने पर जोर दिया है । हिंसा और परिग्रह परस्पर सम्बद्ध हैं। जहां हिंसा होगी वहां परिग्रह और जहां परिग्रह है वहां हिंसा होना अनिवार्य है। दोनों का गठबन्धन है। परिग्रह और हिंसा की वृत्ति पर अगर अंकुश न रखा गया तो स्वयं को अशान्ति होगी और दूसरों की अशान्ति का भी कारण बनेगी । मगर प्रश्न यह है कि हिंसा और परिग्रह की वृत्ति को रोका कैसे जाए ? मानव का मस्तिष्क और हृदय बहुत दुर्बल है । वह गलत या सही, जहां भी क्षणिक सुख-सुविधा देखता है, उसी ओर झुक जाता है । चाहे परिणाम कुछ भी हो, इस क्षणिक सुख की बदौलत चाहे कितना ही दुःख भविष्य में भोगना पड़े, मगर मनुष्य एक बार उस ओर प्रवृत्त हुए बिना नहीं रहता । ऐसी स्थिति में कौन-सा उपाय अपनाया जाय जिससे मनुष्य का निरंकुश मन अंकुश में आए ? इस प्रश्न के समाधान के लिए भगवान् वीतराग ने व्रतविधि की योजना की है । व्रतों के द्वारा मन को मजबूत करके पाप को सीमित करने का मार्ग प्रस्तुत किया गया है । मनुष्य जब व्रत अंगीकार करता है तो उसका जीवन नियन्त्रित हो जाता है । व्रत के अभाव में जीवन का कोई सदुद्देश्य नहीं रहता । जब व्रत अंगीकार कर लिया जाता है तो एक निश्चित लक्ष्य बन जाता है। व्रती पुरुष कुटुम्ब, समाज तथा देश में भी शान्ति का आदर्श उपस्थित कर सकता है और स्वयं भी अपूर्व शान्ति का उपभोक्ता बन जाता है । व्रती का जीवन दूसरों को पीड़ा प्रदायक नहीं होता, किसी को उत्ताप नहीं देता । वह धर्म, न्याय, शान्ति, सहानुभूति, करुणा और संवेदना जैसी दिव्य भावनाओं का प्रतीक बन जाता है । अतएव जीवन में व्रतविधान की अत्यन्त आवश्यकता है।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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