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________________ 406 आध्यात्मिक आलोक प्रत्यक्ष और परोक्ष पापों को दृष्टि में रख कर भगवान् महावीर ने यन्त्रपीड़न कर्म को निषिद्ध कर्म माना है। सर्वविरति को अंगीकार करने वाले भौगोपभोग की वस्तुओं के उत्पादन से सर्वथा विरत होते हैं। और देशविरति का पालन करने वाले श्रावक मर्यादा के साथ महारंभ से बचते हुए उत्पादन करते हैं । अपने व्रतों में कदाचित् किसी प्रकार की स्खलना हो जाय तो उसकी आलोचना और प्रायश्चित करके उसके प्रभाव को निर्मूल करते हैं। सिंहगुफावासी मुनि के संयम में जो स्खलना हो गई थी, उसकी शुद्धि के लिए वे अपने गुरु के श्रीचरणों में उपस्थित हुए। उन्होंने अपने प्रमाद को अनुभव किया और प्रमाद जनित दोष की शुद्धि की । वीर पुरुष फिसल कर भी अपने को गिरने नहीं देता । निर्बल गिर कर चारों खाने चित्त हो जाता है। . उधर मुनि शुद्धि करके आराधक बने, उन्होंने अपने आचार को निर्मल बनाया और इधर आचार्य संभृतिविजय को भी भाव-सेवा का लाभ मिला और उससे कर्म की निर्जरा हुई। दूसरे की साधना में सहायक बनने वाला भी महान सेवाव्रती होता है। संसार में प्राणियों की तीन श्रेणियां पाई जाती हैं(१) सारंभी, सपरिग्रही (२) अनारंभी, अपरिग्रही () अल्पारंभी, अल्पपरिग्रही। इनमें से श्रमण का जीवन दूसरी श्रेणी में आता है। श्रमण सब प्रकार के आरंभ और परिग्रह से रहित होता है। ___ पाटलीपुत्र में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा तो साधुओं को भिक्षालाभ मिलने में अत्यन्त कष्ट होने लगा । गृहस्थों को अपना पेट भरना कठिन हो गया । ऐसी स्थिति में साधुओं को आहारदान देने की सूझे किसको? भिक्षु-अतिथि आकर हैरान न . करे इस विचार से गृहस्थ अपने घर के द्वार बन्द कर लेते थे । शास्त्रोक्त नियमों का पूरी तरह पालन करते हुए भिक्षा प्राप्त कर लेना बहुत कठिन था । 'अनाधीनं सकलं कर्म अर्थात् सभी काम अन्न पर निर्भर हैं, यह उक्ति प्रसिद्ध है । उदर की ज्वाला जब तक शान्त न हो जाय तब तक धर्मकार्य भी यथावत् नहीं होते । स्वाध्याय, आत्मचिन्तन, मनन-प्रवचन, धर्म जागरण, आराधन, ज्ञानाभ्यास आदि सत् कार्य अन के अधीन हैं। प्राचीन काल में शास्त्र लिपिबद्ध नहीं किये गये थे । भगवान् के अर्थ रूप प्रवचनों को गणधरों ने शास्त्रीय रूप दे करके व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया और .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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