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________________ 388 आध्यात्मिक आलोक इससे स्पष्ट है कि इसमें जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति अनिवार्य है। हर तरह की शराब में चीजों को सड़ाना आवश्यक होता है । अतएव मदिरा बनाना, बेचना और पीना, सभी घोर पाप का कारण है। ___ मदिरा पीने से क्या-क्या हानियां होती हैं, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं। वे हानियां इतनी प्रकट हैं कि प्रत्येक मनुष्य उनसे परिचित है। मदिरा बुद्धि को, बल को एवं कीर्ति को नष्ट कर देती है बुद्धिं लुम्पति यद्र्व्यं मदकारितदुच्यते । बुद्धि का विनाश या लोप करने वाली जितनी चीजें हैं, वे सब मदिरा श्रेणी में गिनी जाती हैं । क्योंकि उनका परिणाम लगभग एक-सा होता है। जिसका उपयोग निषिद्ध हो, जिसका उपयोग अत्यन्त हानिकारक हो, जीवन को बर्बाद करने वाला हो और जिसको लोग घृणा की दृष्टि से देखते हों, उसका वाणिज्य क्यों किया जाय ? अपने और अपने परिवार की उदर पूर्ति के लिए दूसरे लोगों के जीवन को नष्ट करने में सहायक होना समझदार मनुष्य का काम नहीं है। जिस मदिरापान से हजारों का जीवन भयानक अभिशाप बन जाता है, हजारों परिवार नष्ट हो जाते हैं और दुर्गति को प्राप्त होते हैं, उसका व्यापार भले आदमी के लिए कैसे उचित है । श्रावक ऐसा व्यापार कदापि नहीं करेगा । उदरपूर्ति के साधनों की कमी नहीं है । वह कोई भी अन्य धंधा करके अपना निर्वाह कर लेगा, गरीबी में जीवन व्यतीत कर लेगा, परन्तु ऐसे विनाशकारी पदार्थों के व्यापार में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में सम्मिलित नहीं होगा। इस प्रकार के खरकर्म करने से बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की हानियां होती हैं, अतएव वीतराग भगवान् की वाणी के अमृत का आस्वादन करने वाला श्रावक इस रस वाणिज्य से अवश्य दूर रहेगा । उसे तो परम श्रेयोमय प्रशम का लोकोत्तर रस प्रवाहित करना है, अनन्त जन्मों का लाभकारी वाणिज्य करना है। वह अपने परिवार, ग्राम, नगर और देश में उपशम को वितरण करेगा और अपने तथा दूसरों के कल्याण में सहायक बनेगा । आनन्द जब भगवान महावीर के निकट व्रत ग्रहण करके घर पहुँचा तो उसने तुरन्त ही अपनी धर्मपत्नी शिवानन्दा को भी व्रत ग्रहण करने को भेजा । ऐसे अनेक प्रावकों ने ज्ञान और उपशम का वितरण किया. है । उन्होंने गृहस्थी में रहकर मदिरा-रस न पिला कर ज्ञान का रस पिलाया । और अपना भी कल्याण किया ।
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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