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________________ [६४] धर्म और कानन का राज्य 'सव्व जगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिअं ।' भगवान महावीर ने उस समय धर्मदेशना प्रारम्भ की जब वे चार घनघातिया कर्मों का क्षय करके सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, वीतराग और कृतकृत्य हो चुके थे । अतएव सहज ही यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि उनके लिये धर्मदेशना देने का प्रयोजन क्या था ? जब वे पूर्ण वीतराग थे, जो कुछ प्राप्त करना था, उसे प्राप्त कर चुके थे, तब देशना देने में उनकी प्रवृत्ति क्यों हुई ? कर्मशास्त्र की दृष्टि से तो कहा जा सकता है कि भगवान कृतार्थ होने पर भी तीर्थंकर नामकर्म के उदय को वेदन करने के लिए धर्मदेशना देते हैं | धर्मदेशना देने से ही तीर्थकर प्रकृति की निर्जरा होती है। यह धर्मदेशना का कारण है । किन्तु दूसरी दृष्टि से भगवान की धर्मदेशना का लक्ष्य है जीव मात्र की रक्षा | सम्पूर्ण जगत् के जीवों का रक्षण ही तीर्थंकर के प्रवचन का परम लक्ष्य है। यहां जीवों में किसी प्रकार का भेद नहीं रखा गया है । भगवान की देशना में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं है, संकीर्णभाव नहीं है। ऐसा नहीं है कि वे मनुष्य जाति की रक्षा का उपदेश दें और मनुष्येतर प्राणियों की उपेक्षा करें । शास्त्र में रक्षण और दया इन दो शब्दों का प्रयोग किया गया है । वास्तव में रक्षा या दया की भावना समग्रता को लेकर ही चल सकती है । लंगड़ी दया सच्ची दया नहीं कहला सकती। किसी मनुष्य के चार लड़के हैं । यदि वह सन्ततिप्रेमी है तो चारों पर उसका समान स्नेह होता है । जो पिता पक्षपात से काम लेता है, किसी सन्तान पर स्नेह रखता है और किसी पर नहीं, उसे आदर्श पिता नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार जो मनुष्यों और कतिपय अन्य प्राणियों की रक्षा एवं दया का ही लक्ष्य रखता .
SR No.010709
Book TitleAadhyatmik Aalok Part 01 and 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj, Shashikant Jha
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year
Total Pages599
LanguageHindi, Sanskrit, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Discourse
File Size28 MB
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